Chapter 4. भारत के विदेश संबंध | विश्व शांति के लिए भारत का प्रयास : Political Science-II class 12
Chapter 4. भारत के विदेश संबंध | विश्व शांति के लिए भारत का प्रयास : Political Science-II class 12
विश्व शांति के लिए भारत का प्रयास :
विदेश निति : प्रत्येक देश अन्य देशों के साथ संबंधों की स्थापना में एक विशेष प्रकार की ही निति का प्रयोग करता है जिसे विदेश निति कहते हैं |
भारत की विदेश निति के दो प्रमुख तत्व :
(i) अन्य सभी देशों की संप्रभुता का सम्मान करना
(ii) शांति कायम करके अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करना
भारतीय राष्ट्रिय आन्दोलन उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ एक संघर्ष :
भारतीय राष्ट्रिय आन्दोलन अपने आप में यह कोई अकेली/स्वतंत्र घटना नहीं थी बल्कि यह उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ शेष विश्व में चल रहे आन्दोलन अथवा संघर्ष का ही एक हिस्सा था |
(i) इस आन्दोलन का असर एशिया और अफ्रीका के कई मुक्ति आन्दोलनों पर हुआ |
(ii) आज़ादी से पहले से ही राष्ट्रवादी आन्दोलन के नेता दुनिया में अन्य उपनिवेशों के लिए मुक्ति आन्दोलन चला रहे नेताओं के संपर्क में थे |
(iii) दुसरे विश्वयुद्ध के दौरान नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने इंडियन नेशनल आर्मी (I. N. A) का गठन किया |
गुटनिरपेक्षता की निति :
विश्वयुद्ध के तुरंत बाद ही शीतयुद्ध का दौर शुरू हो गया | दुनिया के देश दो खेमों में बंट रहे थे | दोनों खेमों के बीच विश्वस्तर पर आर्थिक, राजनितिक और सैन्य टकराव जारी था | इसी दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ भी अस्तित्व में आया | विश्व दो खेमे संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ जैसे दो ध्रुवों में बंटा हुआ था | परमाणु हथियारों की होड़ शुरू हो गई | भारत इन दोनों गुटों में से किसी में भी नहीं शामिल होने का फैसला किया | लेकिन भारत जिस गुट में शामिल हुआ उसका नाम था गुटनिरपेक्ष गुट, ये इन दो ध्रुवीय गुट से अलग था जो भारत को अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों से अलग करता था | भारत की इस निति को गुटनिरपेक्षता की निति कहा जाता है |
भारत के प्रथम विदेश मंत्री : जवाहर लाल नेहरू |
नेहरू के विदेश निति के तीन बड़े उदेश्य :
(i) कठिन संघर्ष से प्राप्त संप्रभुता को बचाए रखना
(ii) क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखना
(iii) तेज रफ़्तार से आर्थिक विकास करना
नेहरू ने अपने विदेश निति के उदेश्य को हासिल करने के लिए गुटनिरपेक्षता की निति अपनाई :
नेहरू गुटनिरपेक्षता की निति को अपनाकर अपने विदेश निति के उदेश्य को प्राप्त करना चाहते थे - लेकिन इस निति से तो राष्ट्र की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को तो प्राप्त किया जा सकता था परन्तु आर्थिक विकास की चाभी तो विश्व के इन्ही दो गुटों के देशों के पास थी | भारत के बहुत से अन्य नेता भी चाहते थे की भारत अमेरिकी खेमे से ज्यादा नजदीकियाँ बढ़ाना चाहिए | इसका कारण वे मानते थे कि अमेरिका लोकतंत्र की प्रतिष्ठा का सबसे बड़ा हिमायती है | कुछ साम्यवादी नीतियों के विरोधी पार्टिया जैसे जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी भी चाहती थी भारत अमेरिकी गुट में शामिल हो जाये | लेकिन विदेश निति पर नेहरू का कब्जा था |
विश्व शांति के लिए भारत का प्रयास :
आज़ादी के बाद से ही भारत की विदेश निति में विश्व शांति का सपना था और इसके लिए भारत ने गुटनिरपेक्षता की निति अपनाई | इसके लिए भारत ने निम्नलिखित प्रयास किए -
(i) गुटनिरपेक्षता की निति को अपनाना
(ii) शीतयुद्ध से उपजे तनावों को कम करने की कोशिश की
(iii) संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति-अभियानों में अपनी सेना भेजी |
(iv) अंतरराष्ट्रीय मामलों पर भारत ने स्वतंत्र रवैया अपनाया |
भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता की निति अपनाने का कारण :
(i) भारत विश्व शांति चाहता था और वह शीतयुद्ध का हिस्सा नहीं बनाना चाहता था|
(ii) भारत अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों में नहीं पड़ना चाहता था |
(iii) नेहरू अपने विदेश निति के तीनों उदेश्यों को गुटनिरपेक्ष निति को अपनाकर हासिल करना चाहते थे |
एफ्रो-एशियाई एकता के लिए नेहरू / भारत के प्रयास :
(i) नेहरू के दौर में भारत ने एशिया और अफ्रीका के नव-स्वतंत्र देशों के साथ संपर्क बनाए |
(ii) 1940 और 1950 के दशक में नेहरू ने बड़े मुखर स्वर में एशियाई एकता की पैरोकारी की |
(iii) नेहरू की अगुआई में भारत ने मार्च 1947 में एशियाई संबंध सम्मलेन का आयोजन कर डाला |
(iv) नेहरू की अगुआई में भारत ने इंडोनेशिया की आज़ादी के लिए भरपूर प्रयास किए | इसके लिए भारत ने इसके समर्थन में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन किया |
(v) भारत ने खासकर दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का विरोध किया |
(vi) दक्षिण अफ्रीका के बांडुंग-सम्मलेन में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की नींव पड़ी | इस आन्दोलन की स्थापना में नेहरू की महत्वपूर्ण भूमिका थी |
पंचशील की घोषणा : शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पाँच सिद्धांत यानि पंचशील की घोषणा भारत के प्रधानमंत्री नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन. लाई ने संयुक्त रूप से 29 अप्रैल 1954 में की | दोनों देशों के बीच मजबूत संबंध का एक अगला कदम था |
पंचशील के सिद्धांत : भारत तथा चीन
विदेश निति के मामलों पर सर्व-सहमति : विदेश निति के मामलों में सर्व-सहमति आवश्यक है जिसके निम्नलिखित कारण है :
(i) यदि किसी देश की विदेश निति पर सर-सहमति नहीं होगा तो वह देश अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी बातों को या अपने पक्ष को प्रभावी ढंग से नहीं रख पायेगा |
(ii) भारत के विदेश निति के कुछ अंशों जैसे - गुट-निरपेक्षता, साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध, दुसरे देशों से मित्रवत सम्बन्ध और अन्तर्रष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा आदि मामलों पर हमेशा से ही सहमति रही है |
भारत की विदेश निति :
(i) गुट-निरपेक्षता,
(ii) साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध,
(iii) दुसरे देशों से मित्रवत सम्बन्ध
(iv) अन्तर्रष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा
भारत और चीन के बीच मतभेद और सैनिक संघर्ष :
भारत और चीन के बीच मुख्यत: दो मुद्दों पर मतभेद रहे है -
(i) तिब्बत की समस्या : 1962 के भारत-चीन युद्ध का प्रमुख कारण तिब्बत की समस्या थी | चीन ने सदैव तिब्बत पर अपना दावा किया, जबकि भारत इस समस्या को तिब्बतवासियों की भावनाओं को ध्यान में रखकर सुलझाना चाहता था |
(ii) सीमा विवाद : भारत और चीन के बीच सीमा विवाद भी युद्ध का एक प्रमुख कारण रहा है | भारत ने सदैव मैकमोहन रेखा को स्वीकार किया, परन्तु चीन ने इसे स्वीकार नहीं किया | सीमा-विवाद धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि इसने आगे चलकर युद्ध का रूप ले लिया |
तिब्बत समस्या और भारत चीन युद्ध
तिब्बत समस्या : भारत और चीन के बीच विवाद का एक कारण तिब्बत समस्या है | 29 अप्रैल 1954 को भारत ने कुछ शर्तों के साथ तिब्बत पर चीन के अधिपत्य को स्वीकार किया था | दोनों देशों ने पंचशील के सिद्धांतों को माना और विश्वास व्यक्त किया | मार्च, 1957 में तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा ने चीनियों की दमन की नीतियों से भयभीत होकर भारत में शरण ले ली | तभी से तिब्बत भारत एवं चीन के बीच एक बड़ा मशला बना हुआ है |
शिमला समझौता
भारत की परमाणु निति
पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की नाराजगी
दलाई लामा का भारत में शरण लेने का कारण :
1956 में चीनी शासनाध्यक्ष चाऊ एन लाई भारत के अधिकारिक दौरे पर आए तो साथ ही साथ तिब्बत के धर्मिक नेता दलाई लामा भी भारत पहुँचे। उन्होंने तिब्बत की बिगड़ती स्थिति की जानकारी नेहरू को दी। चीन आश्वासन दे चुका था कि तिब्बत को चीन के अन्य इलाकों से कहीं ज्यादा स्वायत्तता दी जाएगी। 1958 में चीनी आधिपत्य के विरुद्ध तिब्बत में सशस्त्र विद्रोह हुआ। इस विद्रोह को चीन की सेनाओं ने दबा दिया। स्थिति बिगड़ती देखकर तिब्बत के पारंपरिक नेता दलाई लामा ने सीमा पारकर भारत में प्रवेश किया और 1959 में भारत से शरण माँगी। भारत ने दलाई लामा को शरण दे दी। चीन ने भारत के इस कदम का कड़ा विरोध् किया।
तिब्बती शरणार्थियों की सहायता में भारत की भूमिका : तिब्बती शरणार्थियों की सहायता में भारत की भूमिका निम्नलिखित है -
(i) जब तिब्बत के पारंपरिक नेता दलाई लामा ने सीमा पारकर भारत में प्रवेश किया और 1959 में भारत से शरण माँगी। भारत ने दलाई लामा को शरण दे दी।
(ii) हालाँकि चीन ने भारत के इस कदम का कड़ा विरोध् किया। पिछले 50 सालों में बड़ी संख्या में तिब्बती जनता ने भारत और दुनिया के अन्य देशों में शरण ली है।
(iii) भारत में (खासकर दिल्ली में) तिब्बती शरणार्थियों की बड़ी-बड़ी बस्तियाँं हैं। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में तिब्बती शरणार्थियों की सबसे बड़ी बस्ती है।
(iv) दलाई लामा ने भी भारत में धर्मशाला को ही अपना निवास-स्थान बनाया है।
(v) 1950 और 1960 के दशक में भारत के अनेक राजनीतिक दल और राजनेताओं ने तिब्बत की आज़ादी के प्रति अपना समर्थन जताया। जिसमें सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ जैसी पार्टियाँ प्रमुख हैं |
भारत और चीन के बीच तनाव का कारण :
(i) तिब्बत समस्या : ऐतिहासिक रूप से तिब्बत भारत और चीन के बीच विवाद का एक बड़ा मसला रहा है। अतीत में समय-समय पर चीन ने तिब्बत पर अपना प्रशासनिक नियंत्रण जताया और कई दफा तिब्बत आजाद भी हुआ। 1950 में चीन ने तिब्बत पर नियंत्रण कर लिया।
(ii) सीमा विवाद : सीमा विवाद को लेकर भारत का दावा था कि चीन के साथ सीमा-रेखा का मामला अंग्रेजी-शासन के समय ही सुलझाया जा चुका है। लेकिन चीन की सरकार का कहना था कि अंग्रेजी शासन के समय का फैसला नहीं माना जा सकता।
तिब्बत समस्या :
(i) ऐतिहासिक रूप से तिब्बत भारत और चीन के बीच विवाद का एक बड़ा मसला रहा है। अतीत में समय-समय पर चीन ने तिब्बत पर अपना प्रशासनिक नियंत्रण जताया और कई दफा तिब्बत आजाद भी हुआ। 1950 में चीन ने तिब्बत पर नियंत्रण कर लिया।
(ii) तिब्बत के ज्यादातर लोगों ने चीनी कब्जे का विरोध् किया। 1954 में जब भारत और चीन के बीच पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर हुए तो इसके प्रावधनों में एक बात यह भी शामिल थी कि दोनों देश एक-दूसरे की क्षेत्रीय संप्रभुता का सम्मान करेंगे। चीन ने इस प्रावधन का अर्थ लगाया कि भारत तिब्बत पर चीनी दावेदारी की बात को स्वीकार कर रहा है।
(iii) 1956 में चीनी शासनाध्यक्ष चाऊ एन लाई भारत के अधिकारिक दौरे पर आए तो साथ ही साथ तिब्बत के धर्मिक नेता दलाई लामा भी भारत पहुँचे। उन्होंने तिब्बत की बिगड़ती स्थिति की जानकारी नेहरू को दी। चीन आश्वासन दे चुका था कि तिब्बत को चीन के अन्य इलाकों से कहीं ज्यादा स्वायत्तता दी जाएगी।
(iv) 1958 में चीनी आधिपत्य के विरुद्ध तिब्बत में सशस्त्र विद्रोह हुआ। इस विद्रोह को चीन की सेनाओं ने दबा दिया। स्थिति बिगड़ती देखकर तिब्बत के पारंपरिक नेता दलाई लामा ने सीमा पारकर भारत में प्रवेश किया और 1959 में भारत से शरण माँगी। भारत ने दलाई लामा को शरण दे दी। चीन ने भारत के इस कदम का कड़ा विरोध् किया।
(v) पिछले 50 सालों में बड़ी संख्या में तिब्बती जनता ने भारत और दुनिया के अन्य देशों में शरण ली है। भारत में खासकर दिल्ली में तिब्बती शरणार्थियों की बड़ी-बड़ी बस्तियाँं हैं। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में संभवतया तिब्बती शरणार्थियों की सबसे बड़ी बस्ती है।
(vi) चीन ने ‘स्वायत्त तिब्बत क्षेत्र’ बनाया है और इस इलाके को वह चीन का अभिन्न अंग मानता है। तिब्बती जनता चीन के इस दावे को नहीं मानती कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है। ज्यादा से ज्यादा संख्या में चीनी बंदिशों को तिब्बत लाकर वहांँ बसाने की चीन की नीति का तिब्बती जनता ने विरोध् किया।
(vii) तिब्बती चीन के इस दावे को भी नकारते हैं कि तिब्बत को स्वायत्तता दी गई है। वे मानते हैं
कि तिब्बत की पारंपरिक सांकृतिक और धर्म को नष्ट करके चीन वहाँ साम्यवाद फैलाना चाहता है।
भारत चीन सीमा विवाद :
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद भी दोनों देशों के बीच तनाव का एक प्रमुख कारण रहा है | यह समस्या निम्नलिखित थी |
(i) सीमा विवाद को लेकर भारत का दावा था कि चीन के साथ सीमा-रेखा का मामला अंग्रेजी-शासन के समय ही सुलझाया जा चुका है। लेकिन चीन की सरकार का कहना था कि अंग्रेजी शासन के समय का फैसला नहीं माना जा सकता।
(ii) मुख्य विवाद चीन से लगी लंबी सीमा-रेखा के पश्चिमी और पूर्वी छोर के बारे में था। चीन ने भारतीय भू-क्षेत्र में पड़ने वाले दो इलाकों-जम्मू-कश्मीर के लद्दाख वाले हिस्से के अक्साई-चीन और अरुणाचल प्रदेश के अधिकांश हिस्सों पर अपना अधिकार जताया।
(iii) अरुणाचल प्रदेश को उस समय नेफा या उत्तर-पूर्वी सीमांत कहा जाता था। 1957 से 1959 के बीच चीन ने अक्साई-चीन इलाके पर कब्ज़ा कर लिया और इस इलाके में उसने रणनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए एक सड़क बनाई।
(iv) दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के बीच लंबी-लंबी चर्चाएँ और बातचीत चली लेकिन इसके बावजूद मतभेद को सुलझाया नहीं जा सका। दोनों देशों की सेनाओं के बीच सीमा पर कई बार झड़प हुई।
भारत चीन युद्ध के बाद देश की छवि पर प्रभाव: जहाँ भारत की छवि को देश और विदेश दोनों ही जगह धक्का लगा। इस संकट से उबरने के लिए भारत को अमरीका और ब्रिटेन दोनों से सैन्य मदद की गुहार लगानी पड़ी। सोवियत संघ इस संकट की घड़ी में तटस्थ बना रहा। चीन-युद्ध से भारतीय
राष्ट्रीय स्वाभिमान को चोट पहुँची लेकिन इसके साथ-साथ राष्ट्र-भावना भी बलवती हुई। कुछ प्रमुख सैन्य-कमांडरों ने या तो इस्तीफा दे दिया या अवकाश ग्रहण कर लिया। नेहरू के नजदीकी सहयोगी और तत्कालीन रक्षामंत्री वी. के. कृष्णमेनन को भी मंत्रिमंडल छोड़ना पड़ा। नेहरू की छवि भी थोड़ी धूमिल हुई। चीन के इरादों को समय रहते न भाँप सकने और सैन्य तैयारी न कर पाने को लेकर नेहरू की बड़ी आलोचना हुई। पहली बार, उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया और लोकसभा में इस पर बहस हुई। इसके तुरंत बाद, कांग्रेस ने कुछ महत्त्वपूर्ण उप-चुनावों में पटखनी खाई ।
भारत पाकिस्तान संबंध और भारत की परमाणु निति
भारत और चीन के संबंधों में सुधार की शुरुआत : 1962 के युद्ध के बाद भारत और चीन के बीच सबंधों में सुधार होने में लगभग 10 वर्ष लग गए | सुधार के लिए निम्नलिखित प्रयास किये गए |
(i) 1976 में दोनों देशों के बीच पूर्ण राजनयिक सबंध बहाल किये गए | 1979 में पहली बार शीर्ष नेता के तौर पर पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन का दौरा किया |
(ii) राजीव गाँधी ने बतौर प्रधानमंत्री चीन के दौरे पर गए |
(iii) इसके बाद चीन के साथ भारत के सबंधों में ज्यादा जोर व्यापारिक मसलों पर दिया गया |
भारत चीन संबंध को लेकर वामपंथी दलों में टूट : भारत चीन संबंध को लेकर इसका बड़ा असर विपक्षी दलों पर हुआ |
(i) 1962 का भारत चीन युद्ध और चीन-सोवियत संघ के बीच बढ़ते मतभेद से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के अन्दर उठा-पटक मची | इनमे दो खेमे बन गए एक खेमा जो सोवियत संघ का पक्षधर था उसने कांग्रेस से नजदीकी बढाई |
(ii) दूसरा खेमा जो चीन समर्थक था वह खेमा कांग्रेस से नजदीकी के खिलाफ था | जिसके कारण 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी टूट गई और यह खेमा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.आई.एम.- माकपा) पार्टी बनाई |
(iii) बहुत से माकपा के नेताओं को चीन का पक्ष लेने के कारण गिरफ्तार किया गया |
राष्ट्रीय एकता और अखंडता के प्रयास : भारत चीन यूद्ध के बाद पूर्वोत्तर की स्थिति थोड़ी डावांडोल होने लगी | राष्ट्रीय एकता और अखंडता की स्थिति चुनौतीपूर्ण थी | इसलिए पूर्वोत्तर में निम्नलिखित कार्य किये गये -
(i) नागालैंड को प्रान्त का दर्जा दिया गया |
(ii) मणिपुर और त्रिपुरा जो पहले से ही केंद्र-शासित प्रदेश थे लेकिन उन्हें अपनी विधान-सभा के निर्वाचन का अधिकार मिला |
पाकिस्तान के साथ युद्ध : पाकिस्तान और भारत के संबंध शुरू से ही कश्मीर को लेकर विवादित रहा है | जो निम्नलिखित है |
(i) 1947 में ही कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के बीच छदम युद्ध शुरू हो गया | यह युद्ध पूर्णव्यापी बने इससे पहले यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र संघ के पाले में चला गया |
(ii) 1965 में एक बार फिर भारत और पाकिस्तान सैन्य-संघर्ष के लिए आमने-सामने थे | उस समय भारत के प्रधान-मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री थे | 1965 के अप्रैल में पाकिस्तान ने गुजरात के कच्छ इलाके के रन में सैनिक हमला बोल दिया | इसके बाद जम्मू-कश्मीर में उसने अगस्त-सितम्बर के महीने में बड़े पैमाने पर हमला किया | पाकिस्तान को विश्वास था की जम्मू-कश्मीर की जनता उनका समर्थन करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ |
(iii) पाकिस्तान की सेना की बढ़त को रोकने के लिए तात्कालिक प्रधान-मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने पंजाब की सीमा की तरफ एक नया मोर्चा खोल दिया | दोनों देशों की सेनाओं के बीच घनघोर लड़ाई के बाद भारतीय सेना ने बढ़त हासिल करते हुए पाकिस्तान के लाहौर तक पहुँच गई | संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप के बाद इस लड़ाई का अंत हुआ |
(iv) 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच एक और युद्ध हुआ जिसके परिणाम स्वरुप बंगला देश का निर्माण हुआ | यह युद्ध भी दो मोर्चों पर लड़ा गया | एक राजस्थान की सीमा के पास और दूसरा बंगला देश की सीमा के पास | इस युद्ध मे भारत ने बंगला देश के 'मुक्ति संग्राम' को नैतिक समर्थन और भौतिक सहयता दी थी |
1965 भारत पाकिस्तान युद्ध : 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी | जहाँ पाकिस्तान ने गुजरात और जम्मू-कश्मीर में मोर्चा खोला था तो भारत ने भी जबाबी करवाई में पंजाब की सीमा से हमला बोल दिया और भारत की सेना लाहौर तक पहुँच गई | संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से इस लड़ाई का अंत हुआ। बाद में, भारतीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के जनरल अयूब खान के बीच 1966 में ताशकंद-समझौता हुआ। सोवियत संघ ने इसमें मध्यस्थ की भूमिका निभाई। हालाँकि 1965 की लड़ाई में भारत ने पाकिस्तान को बहुत ज्यादा सैन्य क्षति पहुँचाई लेकिन इस युद्ध से भारत की कठिन आर्थिक स्थिति पर और ज्यादा बोझ पड़ा।
ताशकंद समझौता : भारत एवं पाकिस्तान के बीच हुए 1965 के युद्ध को रुकवाने में सोवियत संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से इस लड़ाई का अंत हुआ। बाद में, भारतीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के जनरल अयूब खान के बीच 1966 में एक रूस के एक शहर ताशकंद में समझौता हुआ जिसे ताशकंद-समझौता के नाम से जाना जाता है ।
ताशकंद समझौता के मुख्य प्रावधान :
(i) दोनों पक्षों का यह प्रयास रहेगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र के अनुसार दोनों में मधुर संबंध बने |
(ii) दोनों पक्ष इस बात पर सहमत थे कि दोनों की सेनाएं 5 फ़रवरी 1966 से पहले उस स्थान पर पहुँच जाए, जहाँ वे 5 अगस्त, 1965 से पहले थे |
(iii) दोनों एक दुसरें के विरुद्ध प्रचार नहीं करेंगे |
(iv) दोनों देश एक दुसरे के आन्तरिक विषयों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे |
(v) दोनों देशों के उच्चायुक्त एक-दुसरे के देश में वापिस आयेंगे |
शिमला समझौता और उसके मुख्य प्रावधान :
1972 के युद्ध में पाकिस्तान की बुरी हार के बाद भारत के तात्कालिक प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान की हार का कोई अनुचित लाभ न उठाते हुए दोनों देशों की समस्याओं पर विचार करने के लिए जून 1972 में शिमला में एक शिखर सम्मलेन बुलाया | इस सम्मेलन में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री भुट्टो ने श्रीमती इंदिरा गाँधी के बीच 3 जुलाई को एक समझौता हुआ जिसे शिमला समझौता कहते हैं | इस समझौता की प्रमुख बातें निम्नलिखित है |
(i)
कारगिल संघर्ष : 1999 के शुरुआती महीनों में भारतीय इलाके की नियंत्रण सीमा रेखा के कई ठिकानों जैसे द्रास, माश्कोह, काकसर और बतालिक पर अपने को मुजाहिद्दीन बताने वालों ने कब्ज़ा कर लिया था। पाकिस्तानी सेना की इसमें मिलीभगत भाँप कर भारतीय सेना इस कब्जे के खिलाफ हरकत में आयी। इससे दोनों देशों के बीच संघर्ष छिड़ गया। इसे ‘करगिल की लड़ाई’ के नाम
से जाना जाता है। 1999 के मई-जून में यह लड़ाई जारी रही। 26 जुलाई 1999 तक भारत अपने अधिकतर ठिकानों पर पुनः अधिकार कर चुका था। करगिल की लड़ाई ने पूरे विश्व का ध्यान खींचा था क्योंकि इससे ठीक एक साल पहले दोनों देश परमाणु हथियार बनाने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर चुके थे।
सी०टी०बी०टी० : सीटीबीटी का पूरा नाम कॉम्प्रेहेंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी अर्थात परमाणु परिक्षण प्रतिबन्ध संधि है |
भारत के सीटीबीटी के विरोध करने का कारण/ भारत के सीटीबीटी पर हस्ताक्षर न करने का कारण :
(i) सीटीबीटी जैसी संधियाँ उन्ही देशों पर लागू होने को थी जो परमाणु शक्ति से हीन थे | इन संधियों के द्वारा परमाणु संपन्न देश को परमाणु शक्ति पर एकाधिकार दी जा रही थी |
(ii) परमाणु संपन्न देशों की निति भेदभावपूर्ण थी, जिसका भारत ने विरोध किया | इस संधि पर हस्ताक्षर करना भारत के हित में नहीं था |
(iii) 1995 में जब परमाणु-अप्रसार संधि को अनियमितकाल के लिए बढ़ा दिया गया तो भारत ने इसका विरोध किया और सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया |
(iv) भारत के दो पडोसी देश परमाणु संपन्न है और ये देश भारत पर कई बार हमला कर चुके है इसलिए भारत अपनी सुरक्षा को प्राथमिकता दिया |
बीस वर्षीय शांति और मित्रता संधि
भारत का परमणु संपन्न बनने का कारण:
अथवा
भारत द्वारा परमाणु निति और कार्यक्रम चलाने का कारण:
भारत द्वारा परमाणु निति और कार्यक्रम चलाने के कारण निम्नलिखित है -
(i) आत्मनिर्भर राष्ट्र बनना : विश्व में जितने परमाणु संपन्न राष्ट्र है वे सभी आत्मनिर्भर राष्ट्र माने जाते है | भारत परमाणु उर्जा के क्षेत्र में भी आत्मनिर्भर बनना चाहता है |
(ii) आत्म-सुरक्षा करना : आज़ादी के बाद से भारत ने 1947, 1962, 1965, 1971 और 1999 का कारगिल युद्ध देख चूका है जिससे भारत को बहुत बड़ी जान-माल की हानि उठानी पड़ी है | ऐसे में भारत की मज़बूरी बन जाती है कि वो अपनी आत्मरक्षा के लिए जरुरी कदम उठाए |
(iii) भारत के पडोसी राष्ट्रों का परमाणु संपन्न होना : भारत के दो प्रमुख पडोसी और प्रतिद्वंदी देश चीन और पाकिस्तान परमाणु संपन्न देश है जिससे भारत कई बार युद्ध कर चूका है | ऐसे देशों से सामंजस्य की स्थिति लाने के लिए जरुरी है कि भारत भी एक परमाणु संपन्न राष्ट्र हो |
(iv) न्यूनतम अवरोध की स्थिति को प्राप्त करना : भारत अपने परमाणु निति और परमाणु हथियारों से दुसरे देशों के आक्रमण की स्थिति से बचने के लिए न्यूनतम अवरोध की स्थिति प्राप्त करना चाहता है | हमारे पडोसी बार-बार परमाणु हमले की धमकी देते रहते है | ऐसे में भी भारत कभी भी पहले परमाणु हमले की हिमायती नहीं रहा है |
(v) दुसरे शक्तिशाली राष्ट्रों की तरफ शक्ति संपन्न बनना : आज विश्व में जितने भी परमाणु हथियार संपन्न देश है सभी की गिनती शक्तिशाली देशों में होती है | इससे भारत की केन्द्रीय शक्ति मजबूत हुई है ऐसा देखा गया है जब भी भारत की केन्द्रीय शक्ति कंजोर हुई है भारत को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है |
(vi) विश्व समुदाय में प्रतिष्ठा प्राप्त करना : विश्व के लगभग सभी परमाणु संपन्न देशों को आदर और प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है | भारत भी विश्व बिरादरी में अपनी प्रतिष्ठा को बनना चाहता है |
(vii) परमाणु संपन्न राष्ट्रों की विभेदपूर्ण निति : विश्व के परमाणु संपन्न राष्ट्रों ने 1968 में परमाणु अप्रसार संधि (N.P.T.) तथा 1996 के व्यापक परमाणु निषेध संधि (C.T.B.T.) को इस प्रकार से लागु करना चाहा जिससे कि कोई भी अन्य देश परमणु हथियार न बना सके | भारत ने इन दोनों संधियों को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर विभेदपूर्ण बताया और इस पर हस्ताक्षर नहीं किए और अपने शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम को जारी रखा |
भारतीय परमाणु निति की विशेषताएँ :
(i) आत्मनिर्भर राष्ट्र बनना : भारत परमाणु उर्जा के क्षेत्र में सदा से ही आत्म-निर्भर बनने की रही है |
(ii) आत्म-सुरक्षा करना : भारत एक बहुत विशाल देश है और इसकी सुरक्षा एक बहुत बड़ी चुनौती है | इसकी सीमाएँ भी बहुत जटिल है | ऐसे में भारत कई बार युद्ध की मार झेल चूका है | आत्म-रक्षा भारत की परमाणु निति की एक प्रमुख विशेषता है |
(iii) शांतिपूर्ण परमाणु निति और कार्यक्रम : भारत पहले ही कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों से घोषणा कर चूका है कि उसका परमाणु कार्यक्रम सिर्फ शांतिपूर्ण उदेश्यों के लिए है |
(iv) प्रथम प्रयोग से निषेध : भारत के परमाणु संपन्न राष्ट्रों द्वारा बार-बार परमाणु हमले की धमकी के बावजूद भारत ने पहले परमाणु हमले से निषेध किया है | उसने हमेशा कहा है कि वो कभी भी किसी पर पहले परमाणु हथियारों से हमला नहीं करेगा |
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Political Science-II Chapter List
Chapter 1. राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ
Chapter 2. एक दल ले प्रभुत्व का दौर
Chapter 3. नियोजित विकास की राजनीति
Chapter 4. भारत के विदेश संबंध
Chapter 5. कांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्थापना
Chapter 6. लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट
Chapter 7. जन आन्दोलनों का उदय
Chapter 8. क्षेत्रीय आकांक्षाएँ
Chapter 9. भारतीय राजनीति : नए बदलाव
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