Chapter 8. किसान जमींदार और राज्य | सत्रहवीं शताब्दी में भारतीय समाज History Part-2 class 12
Chapter 8. किसान जमींदार और राज्य | सत्रहवीं शताब्दी में भारतीय समाज History Part-2 class 12
सत्रहवीं शताब्दी में भारतीय समाज
सत्रहवीं शताब्दी के हिंदुस्तान की जनता :
(i) सोलहवीं-सत्राहवीं सदी के दौरान हिंदुस्तान में करीब-करीब 85 फीसदी लोग गाँवों में रहते थे।
(ii) छोटे खेतिहर और भूमिहर संभ्रांत दोनों ही कृषि उत्पादन से जुडे़ थे और दोनों ही फसल के हिस्सों के दावेदार थे।
(iii) इससे उनके बीच सहयोग, प्रतियोगिता और संघर्ष के रिश्ते बने। खेती से जुडे़ इन तमाम रिश्तों के ताने-बाने से गाँव का समाज बनता था।
(iv) कई फसलें बिक्री के लिए उगाई जाती थीं, इसलिए व्यापार, मुद्रा और बाजार भी गाँवों में घुस आए और इससे खेती वाले इलाके शहर से जुड़ गए।
(v) इस समय मुग़लों का शासन था, कर समय पर मिल जाए इसलिए उन्होंने कृषि को बढ़ावा दिया |
(vi) राज्य के नुमाइंदे - राजस्व निर्धारित करने वाले, राजस्व वसूली करने वाले, हिसाब रखने वाले - ग्रामीण समाज पर काबू रखने की कोशिश करते थे।
सत्रहवीं शताब्दी में भारतीय किसान और कृषि उत्पादन :
खेतिहर समाज की बुनियादी इकाई गाँव थी जिसमें किसान रहते थे। किसान साल भर अलग-अलग मौसम में वो तमाम काम करते थे जिससे फसल की पैदावार होती थी - जैसे कि जमीन की जुताई, बीज बोना और फसल पकने पर उसकी कटाई। इसके अलावा वे उन वस्तुओं के उत्पादन में भी शरीक होते थे जो कृषि-आधारित थीं जैसे कि शक्कर, तेल इत्यादि।
कृषि क्रियाकलापों के जानकारी के स्रोत :
(i) ऐतिहासिक ग्रन्थ और दस्तावेज जैसे आइना-ए-अकबरी पुस्तक के लेखक अबुल फजल है |
(ii) सत्राहवीं व अठारहवीं सदियों के गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान से मिलने वाले वे दस्तावेज शामिल हैं जो सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी देते हैं।
(iii) ईस्ट इंडिया कंपनी के बहुत सारे दस्तावेज भी हैं जो पूर्वी भारत में कृषि-संबंधों का उपयोगी
खाका पेश करते हैं।
आइना-ए-अकबरी में दिया वर्णन :
अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने लिखा था। खेतों की नियमित जुताई की तसल्ली करने के लिए, राज्य के नुमाइंदों द्वारा करों की उगाहीे के लिए और राज्य व ग्रामीण सत्तापोशो यानी कि जमींदारों के बीच के रिश्तों के नियमन के लिए जो इंतजाम राज्य ने किए थे, उसका लेखा-जोखा इस ग्रन्थ में बड़ी सावधानी से पेश किया गया है।
मुग़लकालीन भारतीय किसान :
मुग़लकाल के भारतीय-फ़ारसी स्रोत किसानों के लिए आमतौर पर रैयत या मुजरियान शब्द का इस्तेमाल करते थे | साथ ही, साथ किसान या असामी जैसे शब्द भी मिलते हैं |
सत्रहवीं सदी के स्रोत के अनुसार किसान दो प्रकार के थे -
(i) खुद-काश्त : वे किसान जो गाँव में रहते थे और जिनकी खुद की जमीन थी |
(ii) पाहि-काश्त : वे खेतिहर किसान जो दुसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे |
पाहि-काश्त लोग अपनी मर्जी से भी बनते थे तब जबकि -
(i) अगर करों की शर्ते किसी दुसरे गाँव में बेहतर मिले |
(ii) अकाल या भूखमरी के बाद आर्थिक तंगी से परेशान होकर|
किसानों की जमीन :
उत्तर भारत के एक औसत किसान के पास अधिक से अधिक एक जोड़ी बैल और दो हल से अधिक कुछ नहीं होता था | किसी-किसी के पास इससे भी कम | गुजरात में किसानों के पास 6 एकड़ के जमीन जिसके पास होती थी उसे अमीर माना जाता था | बंगाल में एक औसत किसान की जमीं की उपरी सीमा 5 एकड़ थी | 10 एकड़ जमीन वाली असामी को अमीर समझा जाता था | खेती व्यक्तिगत मिल्कियत के सिद्धांत पर आधारित थी | किसानों की जमीन उसी तरह खरीदी बेचीं जाती थी जैसे दुसरे संपति बेचीं या खरीदी जाती थी |
मुग़लकाल में कृषि, सिंचाई और तकनीक का विकास :
(i) जमीन की बहुतायत, मजदूरों की मौजूदगी और किसानों की गतिशीलता की वजह से कृषि का लगातार विस्तार हुआ |
(ii) चूँकि खेती का प्राथमिक उदेश्य लोगों का पेट भरना था इसलिए रोजमर्रा के खाने की जरूरतें जैसे चावल, गेंहूँ, ज्वार इत्यादि फसलें सबसे ज्यादा उगाई जाती थी |
(iii) जिन इलाकों में प्रतिवर्ष 40 इंच या उससे ज्यादा बारिश होती थी, वहाँ चावल की खेती होती थी |
(iv) कम और कमतर बारिश वाले इलाकों में क्रमश: गेंहूँ व ज्वार-बाजरे की खेती ज्यादा प्रचलित थी |
(v) कुछ फसलों में अतिरिक्त पानी की जरुरत थी, इनके लिए सिंचाई के कृत्रिम उपाय बनाने पड़े |
(vi) सिंचाई कार्यों के लिए राज्य की मदद भी मिलती थी | उत्तर भारत में राज्य ने कई नयी नहरें व नाले खुदवाएं और कई पुरानी नहरों की मरम्मत करवाई |
(vii) कृषि कार्य अकसर पशुबल पर आधारित था |
तम्बाकू का प्रसार :
अकबर और उसके अभिजातों ने 1604 में पहली बार तम्बाकू देखा | यह पौधा सबसे पहले दक्कन पहुँचा और वहाँ से सत्रहवी सदी के शुरुआत में इसे भारत लाया गया | आइन उत्तर भारत की फसलों की सूची में तम्बाकू का जिक्र नहीं करती है | इसी समय तम्बाकू का धुम्रपान करने में लत ने जोर पकड़ा | जहाँगीर ने इस बुरी आदत के फ़ैलाने से चिंतित होकर इस पर पाबन्दी लगा दी | यह पाबन्दी पूरी तरह से बेअसर साबित हुई |
फसल और कृषि :
मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी |
(i) एक खरीफ (पतझड़ में)
(ii) दूसरी रबी (वसंत में)
आइन के अनुसार भारत में उगाई जाने वाली फसलें :
आइन हमें बताती है कि दोनों मौसम मिलाकर,. मुग़ल प्रान्त आगरा में 39 किस्म की फसलें उगाई जाती थी जबकि दिल्ली प्रान्त में 43 फसलों की पैदावार होती थी | बंगाल में सिर्फ चावल की 50 किस्में पैदा होती थी | मुग़लकाल में दैनिक आहार की खेती पर ज्यादा जोर दिया जाता था |
मुग़ल काल में व्यावसायिक खेती :
मुग़ल राज्य भी किसानों को ऐसी फसलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज्यादा कर मिलता था | कपास और गन्ने जैसी फसलें बेहतरीन और जींस-ए-कामिल थीं | बंगाल चीनी के लिए मशहूर था |
ग्रामीण समुदाय और किसान :
किसान सामूहिक ग्रामीण समुदाय का हिस्सा था | किसान का जमीन पर व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी |
इस समुदाय के तीन घटक थे -
(i) खेतिहर किसान,
(ii) पंचायत और
(iii) गाँव का मुखिया
जाति एवं ग्रामीण व्यवस्था :
(i) खेतों की जुताई या मजदूरी के कामों में गाँव में नीच समझे जानी वाली जातियों के लोग करते थे | गाँव का बड़ा हिस्सा ऐसे ही लोगों का था इनके पास संसाधन सबसे कम थे और ये जाति व्यवस्था के पाबंदियों में बंधे थे |
(ii) मुसलमान समुदायों में हलालखोरान जैसे 'नीच' कामों से जुड़े समूह गाँव की हदों के बाहर ही रह सकते थे | बिहार में मल्लाह्जादाओं की तुलना दासों से की जा सकती थी |
(iii) जाट भी किसान थे लेकिन जाति व्यवस्था में इनकी जगह राजपूतों से नीची थी | वृन्दावन के गौरव समुदाय राजपूत होते हुए भी जुताई के काम में लगे थे |
(iv) पशुपालन और बागवानी में मुनाफे कमाने की वजह से अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक दर्जे में ऊँचे थे |
सत्रहवी शताब्दी में पंचायती व्यवस्था :
पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुकदम या मंडल कहते थे | पंचायत का फैसला गाँव में सबकों मानना पड़ता था | मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी जमींदार से लेनी पड़ती थी | मुखिया अपने ओहदे पर तब तक बना रह सकता था जब तक गाँव के बुजुर्गों का उस पर भरोसा होता था | ऐसा नहीं होने पर गाँव के बुजुर्ग उसे बर्खास्त कर सकते थे | गाँव के आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था | पंचायत का खर्चा उस आम खजाने से चलता था जिसमें गाँव का हर व्यक्ति अपना योगदान देता था | इस खजाने से उन कर अधिकारीयों की खातिरदारी भी की जाती थी जो समय-समय पर गाँव का दौरा करते थे | इस कोष का इस्तेमाल बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं से निपटने के लिए भी होता था |
ग्रामीण पंचायतों की न्याय व्यवस्था
ग्रामीण पंचायतों की न्याय व्यवस्था :
(i) पंचायत का मुखिया लोगों के आचरण पर नजर रखता था और यह ध्यान रखा जाता था कि अलग-अलग समुदाय के लोग अपनी जाति की हदों के अन्दर ही रहे |
(ii) पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे ज्यादा गंभीर दंड देने के अधिकार थे |
(iii) समुदाय से निकालना एक कड़ा कदम था जो एक सिमित समय के लिए लागु किया जाता है |
दण्डित व्यक्ति को गाँव छोड़ना पड़ता था | ऐसे नीतियों का मकसद जातिगत रिवाजों की अवहेलना रोकना था |
(iv) ग्राम पंचायत के अलावा हर जातियों की अपनी पंचायत होती थी | राजस्थान में जाति पंचायतें अलग-अलग जातियों के दीवानी के झगड़ों का निपटारा करता था |
ग्रामीण दस्तकार :
(i) गाँव में दस्तकार काफी अच्छी तादात में रहते थे |
(ii) कभी-कभी किसानों और दस्तकारों के बीच फर्क करना मुश्किल होता था क्योंकि कई ऐसे समूह थे जो दोनों किस्म के काम करते थे | मसलन-रंगरेजी, कपडे पर छपाई, मिटटी के बर्तनों को पकाना, खेती के औजार को बनाना या उसकी मरम्मत करना |
(iii) फुर्सत में ये लोग बुआई और सुहाई के बीच या सुहाई और कटाई के बीच-उस समय ये खेतिहर दस्तकारी का काम करते थे |
(iv) कुम्हार, लोहार, बढई, नाइ, यहाँ तक कि सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकार भी अपनी सेवाएँ गाँव के लोगों को देते थे जिसके बदले गाँव वाले अलग-अलग तरीकों से उन सेवाओं की अदायगी करते थे |
भारतीय गाँव एक छोटा गणराज्य :
उन्नीसवी सदी के कुछ अंग्रेज अफसरों ने भारतीय गांवों को एक ऐसे "छोटे गणराज्य" के रूप में देखा जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों और श्रम का बँटवारा करते थे | संपति व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी लिंग और जाति के नाम पर गहरी विषमतायें थी | कुछ ताकतवर लोग गाँव के मसलों पर फैसले लेते थे और कमजोर वर्गों का शोषण करते थे | न्याय करने का अधिकार भी उन्हें मिला हुआ था |
गाँव में मुद्रा :
सत्रहवीं सदी में फ़्रांसिसी यात्री ज्यां बैप्टिस्ट तैव्नियर को यह बात उल्लेखनीय लगी कि "भारत में वे गाँव बहुत छोटे कहे जायेंगे जिनमें मुद्रा की फेर बदल करने वाले जिन्हें सराफ कहते है, न हो | ये सराफ एक बैंकर की तरह सराफ हवाला भुगतान करते हैं और अपनी मर्जी के मुताबिक पैसे के मुकाबले रुपये कोई कीमत बढ़ा देते हैं और कौड़ियों के मुकाबले पैसे की |
कृषि समाज में महिलाओं की भूमिका :
(i) कृषि और घरेलु उत्पादन की प्रक्रिया में मर्द और महिलाएं एक खास भूमिका अदा करते थे | महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे-से-कन्धा मिलाकर काम करती थी |
(ii) सूत कातने, बरतन बनाने के लिए मिटटी को साफ करने और गूंधने और कपड़ों पर कढाई जैसे दस्तकारी के काम उत्पादन के ऐसे पहलू थे जो महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे |
(iii) किसान और दस्तकार महिलाएँ जरुरत पड़ने पर न सिर्फ खेतों में काम करती थी बल्कि नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थी और बजारों में भी |
(iv) श्रम पर आधारित उस समाज में महिलाओं को बच्चा पैदा करने के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था | फिर भी शादी शुदा महिलाओं की संख्या कम थी क्योंकि कुपोषण और बार-बार माँ बनने और प्रसव के वक्त मौतों की वजह से महिलाओं में मृत्यु दर अधिक थी |
भारत में जंगलों का फैलाव :
(i) समसामयिक स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर जंगल औसतन 40 प्रतिशत था |
(ii) उत्तर और उत्तर भारत की गहरी खेती वाले प्रदेशों को छोड़ दे तो जमीन के विशाल हिस्से जंगल या झाड़ियों से घिरे थे |
(iii) झारखण्ड सहित पुरे पूर्वी भारत, मध्य भारत, उतारी क्षेत्र दक्षिणी भारत का पश्चिमी घाट और दक्कन के पठारों तक फैले हुए थे |
जंगल में रहने वाले लोग :
(i) सामन्यत: इन्हें जंगली कहब जाता था | लेकिन जंगली होने का मतलब सभ्यता का न होना बिलकुल नहीं था |
(ii) उन दिनों जंगली शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए होता था जो जंगलों में रहकर जंगल के उत्पादों पर, शिकार और स्थान्तरित खेती पर जीविका चलाते थे |
(iii) लगातार एक जगह से दुसरे जगह घुमते रहना इन जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक खासियत थी |
(iv) राज्य जंगलों को उलट फेर वाला जगह मानता था क्योंकि यह बदमाशों को शरण देने वाला जगह था | कई बार लोग कर देने से बचने के लिए जंगलों में शरण ले लेते थे |
जंगलवासियों की जिंदगी पर वाणिज्यिक खेती का प्रभाव :
(i) जंगल के उत्पाद-जैसे शहद, मधुमोम और लाक की बहुत माँग थी | लाक जैसी कुछ वस्तुएँ तो सत्रहवीं सदी में भारत से समुद्र पार होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थी |
(ii) हाथी भी पकडे और बेचे जाते थे | व्यापर के तहत वस्तुओं की अदला बदली होती थी |
ग्रामीण समाज में जमींदारी
जंगलवासियों के जीवन में आए बदलाव का कारण :
(i) सामजिक कारणों से जंगलवासियों के जीवन में बदलाव आए | कबीलों के भी सरदार होते थे, बहुत कुछ ग्रामीण समुदाय के बड़े आदमियों की तरह उनकी जीवनशैली थी |
(ii) कई कबीलों के सरदार जमींदार बन गए कुछ तो राजा भी हो गए तो ऐसे में उन्हें अपनी सेना खाड़ी करने की जरुरत हुई | उन्होंने अपनी ही खानदान के लोगों को सेना में भर्ती किया या उनसे सैन्य सेवा की माँग की |
(iii) सिंध इलाके की कबीलाई सेनाओं में 6000 घुड़सवार और 7000 पैदल सैनिक थे | असम के अहोम राजाओं के अपने पायक होते थे | पायक वे लोह होते थे जिन्हें जमीन के बदले सैनिक सेवा देनी पड़ती थी |
(iv) कबीलाई व्यवस्था से राजतान्त्रिक प्रणाली की तरफ संक्रमण बहुत पहले ही शुरू हो चूका था, लेकिन ऐसा लगता है की सोलहवीं सदी में आकर ही यह प्रक्रिया पूरी तरह विकसित हुई |
जमींदार : गाँव में रहने वाला एक ऐसा तबका था जो कृषि उत्पादों में सीधे हिस्सेदारी नहीं करते थे | ये अपनी जमीन के मालिक होते थे और जिन्हें ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत की वजह से कुछ खास सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त थी |
जमीदारों की इस हैसियत का कारण :
(i) उनकी जाति
(ii) वे राज्यों को कुछ खास किस्म की सेवाएं देते थे |
जमींदारों की समृद्धि की वजह :
(i) उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन जिसे मिल्कियत कहा जाता था |
(ii) वे अकसर राज्य की ओर से कर वसूलते थे | इसके बदले में उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था |
(iii) सैनिक संसाधन उनकी ताकत का एक और जरिया था | ज्यादातर जमीदारों के पास अपने किले थे और सैनिक टुकड़ियाँ होती थी जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे |
ग्रामीण समाज में जमींदारी :
(i) उस काल में जमींदारी कई तरीके से किया जा सकता था जैसे नयी जमीनों को बसाकर, अधिकारों के हस्तांतरण के जरिए, राज्य के आदेश से, या फिर खरीद कर क्योंकि इस ज़माने में जमीदारी धड़ल्ले से खरीदी और बेचीं जाती थी |
(ii) इन प्रक्रियाओं के जरिए कोई भी निचली जाति का व्यक्ति जमींदार का दर्जा हासिल कर सकता था |
(iii) उत्तर भारत में जमीन की बड़ी-बड़ी पत्तियों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर परिवार या वंश पर आधारित जमींदारियों को पुख्ता होने का मौका दिया |
(iv) जमींदारों ने खेती लायक जमीनों को बसाने में अगुआई की और खेतिहरों को खेती के साजों सामान व उधार देकर उन्हें बसने में भी मदद की |
(v) गाँव में खरीद फरोख्त से मौद्रिकरण की प्रक्रिया में तेजी आई | ये बाज़ार हाट भी स्थापित करते थे जहाँ किसान अपनी उपज को बेचने आते थे |
मुग़लकाल में भू-राजस्व प्रणाली : भू-राजस्व मुग़ल साम्राज्य की आर्थिक बुनियाद थी | इसलिए कृषि उत्पाद पर नियंत्रण रखने के लिए और तेजी से फैलते साम्राज्य के तमाम इलाकों से राजस्व आकलन और वसूली के यह जरुरी था कि राज्य एक प्रशासनिक तंत्र खड़ा करें | इस तंत्र में दीवान, राजस्व अधिकारी के साथ-साथ हिसाब-किताब रखने वाले लोग होते थे | ये अधिकारी खेती के दुनिया में शामिल हुए और कृषि संबंधों को शक्ल देने में एक निर्णायक ताकत के रूप में उभरे |
दीवान : इसके दफ्तर पर पुरे राज्य की वित्तीय व्यवस्था के देख-रेख की जिम्मेवारी थी |
मुग़लकाल में कर निर्धारण :
(i) लोगों पर कर का बोझ निर्धारित करने से पहले मुग़ल राज्य ने जमीन और उस पर होने वाले उत्पादन के बारे में खास किस्म की सूचनाएँ इक्कठा करने की कोशिक होती थी |
(ii) भू-राजस्व के इंतजामात में दो चरण थे : (i) कर निर्धारण (ii) वास्तविक वसूली, जमा निर्धारित रकम थी और हासिल सचमुच वसूली गई रकम थी |
(iii) यह निर्धारित की गई की खेतिहर नकद भुगतान करे साथ ही साथ फसलों में भी भुगतान का विकल्प रखा गया था |
(iv) राजस्व निर्धारित करते समय राज्य अपना हिस्सा ज्यादा से ज्यादा रखने की कोशिश करता था | मगर स्थानीय हालात की वजह से कभी-कभी सचमुच में इतनी वसूली कर पाना संभव नहीं हो पाता था |
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में एशियाई साम्राज्य :
(i) मुग़ल साम्राज्य (भारत में)
(ii) मिंग साम्राज्य (चीन में)
(iii) सफावी साम्राज्य (ईरान में)
(iv) ऑटोमन साम्राज्य (तुर्की में)
एशियाई साम्राज्यों के व्यापार संबंध :
(i) सत्रहवीं सदीं में एशियाई साम्राज्यों ने चीन से लेकर भूमध्यसागर तक जमीनी व्यापार का जिवंत जाल बिछाने में मदद की |
(ii) खोजी यात्राओं से और नयी दुनिया के खुलने से यूरोप के साथ एशिया के खास कर भारत के व्यापार में भारी विस्तार हुआ |
(iii) इसमें समुद्र पार व्यापार के साथ-साथ नयी वस्तुओं का व्यापार शुरू हुआ |
(iv) भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं का भुगतान करने के लिए एशिया में भारी मात्रा में चाँदी आया |
(v) चाँदी आने से सोलहवीं से अठारहवीं सदी में भारत में धातु मुद्रा-खास कर चाँदी के रुपयों की उपलब्धता बढ़ी |
(vi) इससे मुग़ल राज्य को कर वसूलने में नगदी उगाही बढ़ी |
आइन-ए-अकबरी एक ऐतिहासिक और प्रशासनिक परियोजना का नतीजा:
आइन-ए-अकबरी अबु फज़ल की एक महत्वपूर्ण रचना है | इसकी रचना का जिम्मा बादशाह अकबर के हुक्म पर अबुल फज़ल ने उठाया | वास्तव में आइन-ए-अकबरी एक बहुत बड़े ऐतिहासिक और प्रशासनिक परियोजना का नतीजा था | अकबर के शासन के ब्यालिसवें वर्ष, 1598 ई. में पाँच संशोधनों के बाद, इसे पूरा किया गया | आइन इतिहास लिखने के एक ऐसे बड़े परियोजना का हिस्सा था जिसे अकबर ने पहल किया | इस परियोजना के परिणाम से अकबरनामा जिसे तिन जिल्दों में रचा गया | पहली दो जिल्दों ने ऐतिहासिक दास्तान पेश की तो तीसरी जिल्द, आइन-ए-अकबरी शाही नियम कानून के सारांश और साम्राज्य लके एक राजपत्र की सूरत में संकलित किया गया |
आइन में वर्णित विषय :
आइन कई विषयों पर विस्तार से चर्चा करती है : जैसे-
(i) राजदरबार, प्रशासन और सेना का संगठन,
(ii) राजस्व के स्रोत और अकबर साम्राज्य के प्रान्तों का भूगोल
(iii) लोगों के साहित्यिक, सांकृतिक और धार्मिक रिवाज
(iv) अकबर की सरकार के तमाम विभागों और प्रान्तों के बारे में जानकारी
(v) सूबों के बारे में पेचीदे और आँकड़ेबद्ध सूचनाएँ
आइन की सीमाएँ :
(i) `जोड़ करने पर कई गलतियाँ पाई गयी |
(ii) अंकगणित की छोटी-मोती चूक है या फिर नक़ल उतारने के दौरान अबुल फज़ल के सहयोगियों द्वारा की गई गलतियाँ |
(iii) जिन सूबों के राजकोषीय आँकड़ें बड़े तफतीस से दिए गए हैं जबकि उन्ही सूबों से कीमतों और मजदूरी जैसे महत्वपूर्ण मापदंड इतने अच्छे से दर्ज नहीं है |
(iv) ये आँकड़े आगरा और आसपास के इलाकों से लिए गए है देश के बाकि हिसों के लिए इन आंकड़ों की प्रासंगिकता सिमित है !
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History Part-2 Chapter List
Chapter 5. यात्रियों के नजरिए
Chapter 6. भक्ति सूफी परंपराएँ
Chapter 7. एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर
Chapter 8. किसान जमींदार और राज्य
Chapter 9. राजा और विभिन्न वृतान्त
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