Chapter 7. रोजगार-संवृद्धि, अनौपचारीकरण एवं अन्य मुद्दे | श्रमिक एवं उसके प्रकार Economics-II class 12
Chapter 7. रोजगार-संवृद्धि, अनौपचारीकरण एवं अन्य मुद्दे | श्रमिक एवं उसके प्रकार Economics-II class 12
श्रमिक एवं उसके प्रकार
अध्याय 10. रोजगार-संवृद्धि, अनौपचारिकरण एवं अन्य मुद्दे
श्रमिक : वे सभी व्यक्ति जो किसी भी आर्थिक क्रियाओं में संलग्न होते हैं, श्रमिक कहलाते हैं |
आर्थिक क्रिया : सकल राष्ट्रिय उत्पाद (GNP) में योगदान देने वाले सभी क्रियाकलापों को हम आर्थिक क्रियाएँ कहते हैं |
सकल घरेलु उत्पाद (GDP) : किसी देश में एक वर्ष में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं का कुल मौद्रिक मूल्य इसका ‘सकल घरेलू उत्पाद’ कहलाता है।
आर्थिक क्रिया एवं उत्पादन क्रिया में अंतर : आर्थिक क्रिया एवं उत्पादन क्रिया में अंतर है ये दोनों एक नहीं है | उत्पादन क्रिया आर्थिक क्रिया का एक भाग है अर्थात उत्पादन क्रिया आर्थिक में शामिल है |
किसी भी उत्पादन क्रिया में हम या तो स्व-नियोजित होते है या भाड़े के मजदूर लगाकर उत्पादन क्रिया को करते है |
मजदूरों के प्रकार :
(i) स्व-नियोजित मजदूर : वे सभी मजदूर जो अपने उद्यम के स्वामी और संचालक हैं, उन्हें स्वनियोजित मजदूर कहा जाता है |
(ii) भाड़े के मजदूर : वे लोग जो भाड़े पर दूसरों का काम करते है तथा अपनी सेवाओं के पुरुस्कार के रूप में मजदूरी/वेतन प्राप्त करते हैं, भाड़े के मजदूर कहलाते है |
भाड़े के मजदूर दो प्रकार के होते हैं |
(a) नियमित मजदूर : जब किसी श्रमिक को कोई व्यक्ति या उद्यमी नियमित रूप से काम पर रख उसे मजदूरी (वेतन) देता है, तो वह श्रमिक नियमित मजदूर अथवा नियमित वेतन भोगी कर्मचारी कहलाता है |
(b) अनियमित मजदूर : ऐसे श्रमिक जिन्हें कोई व्यक्ति या उद्यमी नियमित रूप से काम पर नहीं रखता है, सिर्फ उसे दैनिक मजदूरी पर ही रखता है, अनियमित मजदूर कहलता है |
ऐसे मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा के लाभ जैसे- भविष्य निधि (Provident Fund), पेंशन (Pension) आदि नहीं मिलता हैं | इनका नाम उद्यम के स्वामियों के स्थायी वेतन सूचियों में नहीं होता हैं |
नियमित मजदुर और अनियमित मजदूर में अंतर :
नियमित मजदुर :
(i) ये वेतन पर काम करते हैं और इन्हें नियमित रूप से काम पर रखा जाता है |
(ii) इनका नाम स्थायी वेतन सूची में दर्ज होता है |
(iii) इनका प्रतिदिन काम करने का समय निश्चित होता है |
(iv) इन्हें सामाजिक सुरक्षा के सभी सुविधाएँ प्राप्त होती है | जैसे - स्वाथ्य, पेंशन, भविष्य निधि आदि |
(v) ये मजदूर कुशल होते है |
अनियमित मजदुर :
(i) ये दैनिक मजदूरी पर काम करते है, और इन्हें नियमित कार्य पर नहीं रखा जाता है |
(ii) इनका नाम स्थायी वेतन सूची में दर्ज नहीं होता है |
(iii) इनका काम करने का समय निश्चित नहीं होता है |
(iv) ऐसे मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा के लाभ जैसे- भविष्य निधि (Provident Fund), पेंशन (Pension) आदि नहीं मिलता हैं |
श्रम आपूर्ति (Labour Supply) : श्रम आपूर्ति से अभिप्राय श्रम की उस मात्रा से है जिसे मजदूर एक विशेष मजदूरी दर पर स्वेच्छापूर्वक अर्पित करते है |
श्रम बल (Labour Force): श्रम बल से अभिप्राय है श्रमिकों कि उस संख्या से जो वास्तव में काम कर रहे हैं या काम करने के इक्छुक हैं |
कार्यबल (Workforce) : कार्यबल से अभिप्राय काम करने वाले इन व्यक्तियों से है जो वास्तव में कार्य कर रहे हैं न कि काम करने के इच्छुक है |
भारत में कार्यबल का वितरण
अध्याय 10. रोजगार-संवृद्धि, अनौपचारिकरण एवं अन्य मुद्दे
भारत में कार्यबल का वितरण :
(1) ग्रामीण कार्यबल : भारतीय अर्थव्यवस्था में कुल कार्यबल का 70% ग्रामीण क्षेत्र में पाया जाता है | ग्रामीण कार्यबल में लगभग 70% पुरुष और 30 % महिलाएं शामिल है |
(2) शहरी कार्य बल : शहरी क्षेत्र में कुल भारत का 30% ही कार्यबल है जिसमें 80 % पुरुष और 20 % महिलाएं हैं |
भारतीय अर्थव्यवस्था में अधिकांश कार्यबल ग्रामीण आधारित है |
अधिकांश कार्यबल ग्रामीण आधारित होने के कारण :
(i) अधिकांश नौकरियां ग्रामीण क्षेत्रों में ही पायी जाती है |
(ii) अधिकांश सकल घरेलु उत्पाद (GDP) ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित है |
(iii) चूँकि भारत कृषि प्रधान देश है जिसके 70% आबादी ग्रामीण इलाकों में बसती है |
महिला श्रमिकों की संख्या कम होने के कारण :
(i) महिलाओं में शिक्षा का प्रसार का कम होना, जिससे नौकरी के अवसर बहुत कम मिलते हैं |
(ii) शहरी परिवारों में महिलाओं के नौकरी करने का निर्णय उनका परिवार करता है | वे स्वयं निर्णय नहीं ले पाती हैं |
(iii) अधिकतर महिलाओं को घरेलु कार्यों तक ही सिमित रखा जाता है |
(iv) ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं जरुरत पड़ने पर ही कार्य करती है अथवा परिवार की जिविका चलाने के लिए कम मजदूरी पर ही कार्य करती हैं |
(v) स्त्रियों को घर से बाहर काम करने पर सामाजिक रूप से वर्जित है |
सहभागिता की दर :
यह उत्पादन क्रिया में वास्तव में भाग लेने वाली जनसँख्या का प्रतिशत है जो कार्य में लगे कुल कार्यबल और देश की कुल जनसंख्या के बीच अनुपात से प्राप्त होता है |
रोजगारहीन संवृद्धि (Jobless Growth) : रोजगारहीन संवृद्धि वह स्थित है जिसके अंतर्गत अर्थव्यवस्था में उत्पादन का स्तर तो बढ़ता है परन्तु रोजगार के अवसरों में उस अनुपात में वृद्धि नहीं होती है | आर्थिक संवृद्धि होने के साथ-साथ बेरोजगारी बनी रहती है | ऐसी स्थिति को रोजगारहीन संवृद्धि कहते हैं |
उत्पादन के स्तर में वृद्धि करने के तरीके :
(i) अधिक से अधिक रोजगार के अवसर उत्पन्न करके |
(ii) बेहतर प्रौद्योगिकी अपनाकर |
आर्थिक संवृद्धि के तत्व :
(i) आर्थिक संवृद्धि तब मानी जाती है जब देश में वस्तुओं एवं सेवाओं के प्रवाह में वृद्धि हो |
(ii) उत्पादन स्तर में वृद्धि |
(iii) जीवन की गुणवता में सुधार |
(iv) वस्तु एवं सेवाओं के उपभोग में वृद्धि |
बेरोजगारी
अध्याय 7.
बेरोजगार : जब कोई सक्षम व्यक्ति प्रचलित मजदूरी दर पर कार्य करने को इच्छुक हो, परन्तु उसे काम नहीं मिलता हो तो उस व्यक्ति को बेरोजगार कहते हैं |
बेरोजगारी : जब किसी सक्षम व्यक्तियों को जो काम करने के इच्छुक है और उन्हें प्रचलित मजदूरी दर पर भी काम नहीं मिल रहा हो तो ऐसी अवस्था को बेरोजगारी कहते हैं |
बेरोजगारी एक अवस्था है जब ये बहुत से लोगों के लिए बनी रहती है तो कहते है कि बेरोजगारी है |
बेरोजगारी के प्रकार :
(1) ग्रामीण बेरोजगारी
(A) अदृश्य या प्रछन्न बेरोजगारी
(B) मौसमी बेरोजगारी
(2) शहरी बेरोजगारी
(A) औद्योगिक बेरोजगारी
(B) शिक्षित बेरोजगारी
(1) ग्रामीण बेरोजगारी :
(A) अदृश्य या प्रछन्न बेरोजगारी : यह वह अवस्था जब किसी काम पर आवश्यकता से अधिक श्रमिक लगे होते है | यदि कुछ श्रमिकों को हटा लिया जाये तो कुल उत्पादन में कोई कमी नहीं होती है | इन श्रमिकों की सीमांत उत्पादकता शून्य या नगण्य होती है |
इस प्रकार की बेरोजगारी कृषि क्षेत्र में पाई जाती है |
अदृष्ट बेरोजगारी के कारण :
(i) कृषि पर आश्रित श्रमिकों की बड़ी संख्या |
(ii) गांवों में कृषि के अलावा अन्य वैकल्पिक रोजगारों की आभाव |
(iii) व्यावसायिक कृषि के बजाय जीवन निर्वाह कृषि का होना |
(B) मौसमी बेरोजगारी : यह बेरोजगारी ग्रामीण भारत में पाई जाती है | इसमें श्रमिक वर्ष के कुछ ही महीने काम पाता है और वर्ष के शेष महीने बेरोजगार रहता है | इस प्रकार की बेरोजगारी कृषि क्षेत्र में लगे लोगों में पाई जाती है | इसके अलावा अन्य मौसमी कार्य करने वाले शादियों में कार्य करने वाले पुरोहित एवं नाई, शादियों में काम करने वाले, बैंड बजाने वाले, ईंट भट्ठे वाले, गन्ना पिराई वाले |
मौसमी बेरोजगारी के कारण :
(i) बहुत से लोगों का काम मौसमी होता है और पुस्तैनी होता है जिन्हें वे छोड़ना नहीं चाहते है |
(ii) वैकल्पिक रोजगार का आभाव |
(iii) ऐसे लोगों को अन्य दूसरा काम करने का अनुभव नहीं है |
(2) शहरी बेरोजगारी
(A) औद्योगिक बेरोजगारी : इस श्रेणी में उन निरक्षर व्यक्तियों को शामिल किया जा सकता है जो उद्योगों, खनिज, यातायात, व्यापार तथा निर्माण आदि व्यवसायों में काम करने के इच्छुक हैं | औद्योगिक बेरोजगारी जनसँख्या में वृद्धि के साथ बढती जाती है |
(B) शिक्षित बेरोजगारी : ऐसी बेरोजगारी में कोई शिक्षित व्यक्ति अन्य श्रमिकों से अधिक कार्यकुशलता होते हुए भी उनकों अपनी योग्यतानुसार काम नहीं मिलता है और वे बेरोजगारी से ग्रसित रहते हैं |
भारत में शिक्षित बेरोजगारी के प्रमुख कारण :
(i) देश में सामान्य शिक्षा का तीव्र प्रसार |
(ii) दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति जो कि रोजगार-उन्मुख नहीं हैं |
(iii) रोजगार अवसरों का अपर्याप्त सृजन
भारत में बेरोजगारी का कारण :
1. भारतीय अर्थव्यवस्था का धीमा विकास |
2. जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि |
3. भूमि पर जनसंख्या का बढ़ता दबाव |
4. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली |
5. कुटीर और लघु उद्योगों का पतन |
6. रोजगार रहित संवृद्धि |
बेरोजगारी दूर करने के उपाय :
1. मौजूदा शिक्षा प्रणाली में सुधार के साथ-साथ कौशल विकाश के लिए जोर |
2. जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण |
3. कुटीर और लघु उद्योग (द्वितीयक क्षेत्रक) को बढ़ावा |
4. आधारित संरचना का विकास इससे रोजगार के अवसर उत्पन्न होते हैं |
5. स्वरोजगार को बढ़ावा देना ताकि अधिक से अधिक शिक्षित बेरोजगार अपनी योग्यतानुसार स्वरोजगार कर सके |
6. रोजगार के कार्यक्रमों चलाने वाले अथवा अवसरों को उत्पन्न करने वाले सहकारी समितियों को सरकारी अनुरक्षण प्रदान करना |
मुद्रा-स्फीति
मुद्रा-स्फीति
मुद्रा-स्फीति : मुद्रा-स्फीति कीमतों में वृद्धि के कारण मुद्रा के मूल्य में गिरावट है | अर्थात मुद्रा के मूल्य में गिरावट और वस्तुओं के समान्य कीमत स्तर में वृद्धि है |
मुद्रा-स्फीति के मानक सूचक :
(i) थोक कीमत सूचकांक (Wholesale Price Index) : यह साप्ताहिक आधार पर थोक कीमतों में परिवर्तन को मापता है | इसमें सिर्फ वस्तुओं की कीमतों को मापा जाता है |
(ii) उपभोक्ता कीमत सूचकांक (Consumer Price Index) : यह मासिक आधार पर खुदरा कीमतों में परिवर्तन को मापता है | इसमें वस्तुओं एवं सेवाओं दोनों को शामिल किया जाता है |
(iii) जीडीपी डिफ्लेक्टर (GDP Deflector) : यह चालू कीमतों पर GDP तथा स्थिर कीमतों पर GDP का अनुपात होता है | यदि जीडीपी डिफ्लेटर का मान 1 है तो इसका तात्पर्य है कि कीमत स्तर में कोई वृद्धि नहीं हुई है |
मुद्रा-स्फीति के परिणाम :
(i) ब्याज की दर बढ़ जाती है |
(ii) निवेश की लागत में वृद्धि होती है |
(iii) लोगों की क्रय क्षमता घट जाती है |
(iv) आगतों कि कीमतों में वृद्धि हो जाती है |
(v) इसके फलस्वरूप महंगाई बढ़ जाती है |
मुद्रा-स्फीति का कारण :
(i) मुद्रा-पूर्ति में वृद्धि : मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होने से मुद्रा के मूल्य में गिरावट होता है | ऐसा दूसरी पंचवर्षीय योजना की अवधि में देखा गया है |
(ii) घाटे का वित्त व्यवस्था : भारत में घाटे का वित्त व्यवस्था का अर्थ नए नोट छापने की नीति से है | इससे मुद्रा स्फीति में वृद्धि होती है |
(iii) जनसंख्या में वृद्धि : जनसंख्या वृद्धि से वस्तु एवं सेवाओं कि माँग में वृद्दि होता है जिससे कीमत स्तर में वृद्धि होती है |
(iv) उत्पादन में कमी : कम उत्पादन से वस्तुओं की पूर्ति प्रभावित होती है जिससे मूल्य वृद्धि होती है |
(v) मजदूरी में वृद्धि : मजदूरी में वृद्धि से वस्तु एवं सेवाओं के लागत मूल्य में वृद्धि हो जाती है | जिससे उत्पादित वस्तु का मूल्य में वृद्धि हो जाती है |
(vi) प्रतिबंधित प्रशासकीय कीमतें : प्रशाकीय कीमतों से तात्पर्य है प्रशासन द्वारा वस्तु एवं सेवाओं का निर्धारित मूल्य से है जिस पर नियंत्रण सरकार का होता है | जैसे - रेल भाडा, डाक व्यय, पेट्रोलियम उत्पाद की कीमतें इत्यादि |
(vii) शेष विश्व में मुद्रा स्फीति : किसी देश में कीमत स्तरों में वृद्धि देखी जाती है जब शेष विश्व में मुद्रा स्फीति चल रही हो |
मुद्रा स्फीति का प्रभाव :
(i) मुद्रा-स्फीति संवृद्धि (विकास) की प्रक्रिया में गतिरोध पैदा करता है |
(ii) इससे परियोजनाओं की लागत में वृद्धि हो जाती है |
(iii) इससे भुगतान शेष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है |
(iv) इससे उन लोगों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है जिनकी स्थिर आय है
(v) मुद्रा स्फीति से श्रमिकों की वास्तविक आय कम हो जाती है और इससे उनकी क्रय क्षमता घट जाती है |
(vi) इससे समाज में आर्थिक असमानता बढ़ने का खतरा होता है |
(vii) इससे विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर प्रभाव पड़ता है |
मुद्रा-स्फीति पर नियंत्रण हेतु सरकारी द्वारा किए गए उपाय:
1. मौद्रिक नीति : मौद्रिक नीति वह नीति है जिसके द्वारा सरकार मुद्रा की पूर्ति तथा ब्याज की दर को नियंत्रित करती है |
मौद्रिक नीति के उपकरण :
(i) मुद्रा की पूर्ति पर रोक
(ii) ब्याज की दर में वृद्धि
(iii) साख की पूर्ति में कमी
2. कीमत नीति : सरकार कुछ समाज कल्याण हेतु कुछ वस्तुओं एवं सेवाओं कि कीमतों को नियंत्रित करती है | जैसे - तेल की कीमतों पर नियंत्रण तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा गरीबों तथा किसानों को लाभ पहुँचाना आदि|
3. आवश्यक वस्तुओं का आयात : कुछ वस्तुओं की कीमत बढ़ जाने पर सरकार उस वस्तु को आयात कर उसके आभाव को दूर करती है साथ ही साथ उनकी आयात शुल्क भी कम कर देती है जिससे मूल्य वृद्धि में कमी आती है | जैसे खाद्यान्न |
4. जमाखोरी पर रोक : मूल्य वृद्धि का बहुत बड़ा कारण कालाबाजारी तथा जमाखोरी है | सरकार इनको रोकने के लिए बहुत से आवश्यक कदम उठाती है और ऐसी वस्तुओं की पहचान कर उनका निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है |
5. राजकोषीय नीति में फेरबदल : सरकार सरकारी व्यय को नियंत्रित करती है तथा करों में वृद्धि करती है ताकि लोगों की कम हो जाये | परिणाम स्वरुप उपभोक्ताओं की क्रय क्षमता घटती है और बढती कीमतों पर रोक लगती है |
मुद्रास्फीति की रोकथाम हेतु मौद्रिक नीति के प्रयोग:-
(i) बैंक दर में वृद्धि:- बैंक दर वह दर है जिस पर केन्द्रीय बैंक व्यापारिक बैंको को ऋण सुविधायें प्रदान करता है| मुद्रास्फीति के दिनों में केन्द्रीय बैंक बैंक-दर में वृद्धी कर देता है जिससे व्यापारिक बैंको द्वारा दिए जाने वाले ऋण पर ब्याज-दरे भी बढ़ जाती है ऋण महेंगा हो जाने पर लोग बैंको से कम ऋण लेंगे|
(ii) सरकारी प्रतिभूतियो कि बिक्री:- भारतीय रिजर्व बैंक खुले बाजार में सरकारिया प्रतिभूतिया बेच कर मुद्रास्फीति पर काबू पा सकते है मुद्रा कि पूर्ति कम हो जाने से कुछ हद तक समग्र मांग भी कम हो जाती है जिससे बढ़ते कीमत स्तर पर अंकुश लगने में मदद मिलेगी|
(iii) वैध कोश अनुपात:- व्यापारिक बैंको को अपनी कुल जमाओ का एक निश्चित अनुपात कोश के रूप में रखना पड़ता है| जिसे वैध कोश अनुपात कहेते है इससे मौद्रिक नीति के प्रयोग से अतिरिक्त मांग पर अंकुश लगाया जा सकता है |
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Economics-II Chapter List
Chapter 1. स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था
Chapter 2. भारतीय अर्थव्यवस्था 1950 - 1990
Chapter 3. आर्थिक सुधार 1991 से
Chapter 4. निर्धनता
Chapter 5. भारत में पूँजी निर्माण
Chapter 6. ग्रामीण विकास
Chapter 7. रोजगार-संवृद्धि, अनौपचारीकरण एवं अन्य मुद्दे
Chapter 8. आधारिक संरचना
Chapter 9. पर्यावरण और धारणीय विकास
Chapter 10. भारत और इसके पडोसी देशों के तुलनात्मक विकास अनुभव
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