Chapter 1. ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ | हड़प्पा संस्कृति की विशेषताएँ History Part-1 class 12
Chapter 1. ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ | हड़प्पा संस्कृति की विशेषताएँ History Part-1 class 12
हड़प्पा संस्कृति की विशेषताएँ
Chapter 1. ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ
संस्कृति शब्द का अर्थ : पुरातत्वविद ‘संस्कृति’ शब्द का प्रयोग पुरावस्तुओं के ऐसे समूह के लिए करते हैं जो एक विशिष्ट शैली के होते हैं और सामान्यतया एक साथ, एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र तथा काल-खंड से संबद्ध पाए जाते हैं।
हड़प्पा सभ्यता का नामकरण : हड़प्पा नामक स्थान जहाँ यह संस्कृति पहली बार खोजी गई थी उसी के नाम पर किया गया है। इसका काल निर्धरण लगभग 2600 और 1900 ईसा पूर्व के बीच किया गया है।
हड़प्पा संस्कृति काल : 2600 से 1900 ईसा पूर्व
हड़प्पा संस्कृति के भाग/चरण :
(i) आरंभिक हड़प्पा संस्कृति
(ii) विकसित हड़प्पा संस्कृति
(iii) परवर्ती हड़प्पा संस्कृति
B.C. (Before Christ) - ईसा पूर्व
A.D (Ano Dominy) - ईसा मसीह के जन्म वर्ष
B.P (Before Present) - आज से पहले
सिन्धु घाटी सभ्यता की सबसे, विशिष्ट पुरावस्तु : मुहर - यह सेलखड़ी नामक पत्थर से बनाई
जाती थी।
हड़प्पा संस्कृति के खुदाई स्थल से मिले भोजन अवशेष :
(i) अनाज - गेंहूँ, जौ, दाल,सफ़ेद चना तथा तिल और बाजरे के दाने गुजरात के स्थलों से प्राप्त हुए हैं |
(ii) जानवरों की हड्डियाँ - भेड़, बकरी, भैंस, सूअर और वृषभ (बैल) आदि का प्रयोग कृषि कार्यों के लिए किया जाता था |
(iii) मछलियाँ और पक्षी के अवशेष मिले हैं |
हड़प्पा संस्कृति के पुरातात्विक साक्ष्य :
या
हड़प्पा सभ्यता की जानकारी के प्रमुख स्रोत :
(i) आवास (ii) मृदभांड (iii) आभूषण, (iv) औजार और (v) मुहरें (vi) इमारतें और खुदाई से मिले सिक्के |
हड़प्पाई संस्कृति के प्रमुख क्षेत्र : अफगानिस्तान, जम्मू, ब्लूचिस्तान (पाकिस्तान), गुजरात,
राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश।
कृषि के अवशेष :
(i) चोलिस्तान के कई स्थलों और बनावली (हरियाणा) से मिटटी से बने हल के प्रतिरूप मिले हैं।
(ii) इसके अतिरिक्त पुरातत्वविदों को कालीबंगन (राजस्थान) नामक स्थान पर जुते हुए खेत का साक्ष्य मिला है जो आरंभिक हड़प्पा स्तरों से संबद्ध है।
(iii) अफगानिस्तान में शोर्तुघई नामक हड़प्पा स्थल से नहरों के कुछ अवशेष मिले हैं |
(iv) धौलावीरा (गुजरात) में मिले जलाशयों का प्रयोग संभवतः कृषि के लिए जल संचयन हेतु किया जाता था।
भारतीय पुरातत्व का जनक : जनरल अलेक्जेंडर कर्निघम
हड़प्पा सभ्यता की बस्तियाँ :
हड़प्पा सभ्यता की बस्तियाँ दो भागों में विभाजित थी -
(i) दुर्ग : ये कच्ची इंटों की चबूतरे पर बनी होती थी | दुर्ग को दीवारों से घेरा गया था | दुर्ग पर बनी संरचनाओं का प्रयोग संभवत: विशिष्ट सार्वजानिक प्रयोग के लिए किया जाता था |
(ii) निचला शहर : निचला शहर आवासीय भवनों के उदाहरण प्रस्तुत करता है | निचला शहर भी दीवार से घेरा गया था। इसके अतिरिक्त कई भवनों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था जो नींव का कार्य करते थे।
हड़प्पा सभ्यता की सडकों और गलियों की विशेषताएँ :
(i) हड़प्पा सभ्यता में सडकों तथा गलियों को लगभग एक ग्रिड, पद्धति पर बनाया गया था |
(ii) ये एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं।
(iii) जल निकास प्रणाली अनूठी थी घरो के गन्दे पानी की नालियों को गली की नालियों से जोड़ा गया था।
(iv) सडकों के साथ-साथ नालियों को बनाया गया था |
(v) सडकों और गलियों के अगल-बगल आवासों को बनाया गया था |
हड़प्पा सभ्यता में सिंचाई के प्रमुख स्रोत :
(i) नहरें
(ii) कुएँ
(iii) जलाशय
विशाल स्नानागर की विशेषताएँ : एक आयताकार जलाशय है। जो चारों ओर से एक गलियारे से घिरा हुआ है। जलाशय के तल तक जाने के लिए सीढि़यां बनी थीं।
मानकों के निर्माण में प्रयुक्त पदार्थ : कार्नीलियन (सुन्दर लाल रंग का) जैस्परर, स्पफटिक, क्वार्टज्
तथा सेलखड़ी जैसे पत्थर - तांबा, काँसा तथा सोने जैसी, धतुएँ तथा शंख फयॉन्स और पकी मिट्टी, सभी का प्रयोग मनके बनाने में होता था। इनके आकार जैसे - चक्राकार, बेलनाकार, गोलाकार तथा खंडित होते थे।
बस्ती के नियोजन कार्य की विशेषताएँ : बस्ती का नियोजन किया गया था और फिर उसके अनुसार कार्यान्वयन किया गया था जिसका उदाहरण हमें यहाँ की बनी ईंटों से पता चलता है |
(i) जो धूप में सुखाकर अथवा भट्टी में पकाकर बनाई गई थी |
(ii) एक निश्चित अनुपात की होती थीं, जहाँ लंबाई और चौड़ाई, ऊँचाई की क्रमशः चार गुनी और दोगुनी होती थी।
(ii) इस प्रकार की ईंटें सभी हड़प्पा बस्तियों में प्रयोग में लाई गई थीं।
हड़प्पा संस्कृति की जल निकासी प्रणाली की विशेषताएँ :
(i) नालियां पक्की ईटो से बनाई गयी थी।
(ii) सडकों के साथ-साथ नालियाँ बनाई गयी थी |
(iii) यदि घरों के गंदे पानी को गलियों की नालियों से जोड़ना था तो प्रत्येक घर की कम से कम एक दीवार का गली से सटा होना आवश्यक था।
(iv) नालियों को ऐसे ईंटों से ढका गया था जिसे नाली सफाई के समय आसानी से हटाया जा सके |
(v) कुछ स्थानों पर ढँकने के लिए चूना पत्थर की पट्टिका का प्रयोग किया गया था |
(vi) घरों की नालियाँ पहले एक हौदी या मलकुंड में खाली होती थीं जिसमें ठोस पदार्थ जमा हो जाता था और गंदा पानी गली की नालियों में बह जाता था।
(vii) बहुत लंबे नालों में कुछ अंतरालों पर सफाई के लिए हौदियाँ बनाई गई थीं।
आवासीय वयवस्था की विशेषताएँ / गृह स्थाप्य कला की विशेषताएँ:
(i) कई आवास एक आँगन पर केन्द्रित थे जिसके चारों ओर कमरे बने थे। संभवतः आँगन, खाना पकाने और कताई करने जैसी गतिविधियों का केंद्र था।
(ii) भूमि तल पर बनी दीवारों में खिड़कियाँ नहीं हैं।
(iii) इसके अतिरिक्त मुख्य द्वार से आंतरिक भाग अथवा आँगन को सीधा नहीं देख सकते थे।
(iv) हर घर का ईंटों के फर्श से बना अपना एक स्नानघर होता था जिसकी नालियाँ दीवार के माध्यम से सड़क की नालियों से जुड़ी हुई थीं।
(v) कुछ घरों में दूसरे तल या छत पर जाने हेतु बनाई गई सीढि़यों के अवशेष मिले थे।
(vi) कई आवासों में कुएँ थे जो अधिकांशतः एक ऐसे कक्ष में बनाए गए थे जिसमें बाहर से आया जा सकता था और जिनका प्रयोग संभवतः राहगीरों द्वारा किया जाता था।
मोहनजोदड़ों में कुओं की संख्या :
मोहनजोदड़ो में कुओं की कुल संख्या लगभग 700 थी।
मुहरें तथा मुद्रांकन
शिल्प-उत्पादन में शामिल कार्य : मनके बनाना, शंख की कटाई, धातुकर्म, मुहर निर्माण तथा बाट बनाना इत्यादि |
चन्हुदडो : यह छोटी 7 हेक्टेयर में फैली बस्ती जो शिल्पकार्य में संलग्न थी |
मनकों के आकार : जैसे - चक्राकार, बेलनाकार, गोलाकार, ढोलाकार तथा खंडित आकार के होते है |
उत्पादन केन्द्रों की पहचान : शिल्प-उत्पादन के केन्द्रों की पहचान के लिए पुरातत्वविद सामान्यतः
निम्नलिखित को ढूँढ़ते हैंः
(i) प्रस्तर पिंड, (ii) पूरे शंख तथा (iii) ताँबा-अयस्क जैसा कच्चा माल, इसके अलावा
(iv) औजार, अपूर्ण वस्तुएँ त्याग दिया गया माल तथा कूड़ा-करकट।
पुरातात्विक अध्ययन के लिए कूड़ा-करकट एक अच्छा संकेतक माना जाता है : कभी-कभी बड़े बेकार टुकड़ों को छोटे आकार की वस्तुएँ बनाने के लिए प्रयोग किया जाता था परंतु बहुत छोटे टुकड़ों को कार्यस्थल पर ही छोड़ दिया जाता था। ये टुकड़े इस ओर संकेत करते हैं कि छोटे, विशिष्ट केन्द्रों के अतिरिक्त मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा जैसे बड़े शहरों में भी शिल्प उत्पादन का कार्य किया जाता था।
माल प्राप्त करने के तरीके :
(i) शिल्प उत्पादन के लिए कई प्रकार के कच्चे माल जैसे - मिटटी, पत्थर, लकड़ी, धातु आदि बाहर के क्षेत्रों से मँगाने पड़ते थे |
(ii) इन वस्तुओं के मँगाने के परिवहन साधन में बैलगाड़ी स्थल मार्ग के लिए जबकि सिन्धु तथा उसके उपनदियों के बगल में बने नदी मार्गों तथा तटीय मार्गों का प्रयोग होता था |
(iii) हड़प्पावासी नागेश्वर और बालाकोट में जहाँ शंख आसानी से उपलब्ध था, बस्तियाँ स्थापित कीं।
(iv) अन्य पुरस्थालों सुदूर अफगानिस्तान में शोर्तुघई, जो अत्यंत कीमती माने जाने वाले नीले रंग के पत्थर लाजवर्द मणि के सबसे अच्छे स्रोत के निकट स्थित था
(v) लोथल जो कार्नीलियन (गुजरात में भड़ौच), सेलखड़ी (दक्षिणी राजस्थान तथा उत्तरी गुजरात से) और धातु (राजस्थान से) के स्रोत के निकट स्थित था।
(vi) ताम्बे के लिए राजस्थान के खेतड़ी अंचल तथा सोने के लिए दक्षिण भारत जैसे क्षेत्रों में अभियान भेजा जाता था जो स्थानीय समुदाय से संपर्क स्थापित करते थे |
सुदूर क्षेत्रो से संपर्क के सबुत :
(i) हाल ही में हुई पुरातात्विक खोजें इंगित करती हैं कि ताँबा संभवतः अरब प्रायद्वीप के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर स्थित ओमान से भी लाया जाता था। रासायनिक विश्लेषण दर्शाते हैं कि ओमानी ताँबे तथा हड़प्पाई पुरावस्तुओं, दोनों में निकल के अंश मिले हैं जो दोनों के साझा उद्भव की ओर
संकेत करते हैं।
(ii) बड़ा हड़प्पाई मर्तबान जिसवेफ ऊपर काली मिटटी की एक मोटी परत चढ़ाई गई थी, ओमानी स्थलों से मिला है। ऐसी मोटी परतें तरल पदार्थों के रिसाव को रोक देती हैं। ऐसा माना जाता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग इनमें रखे सामान का ओमानी ताँबे से विनिमय करते थे।
(iii) मेसोपोटामिया के स्थलों से मिले ताँबे में भी निकल के अंश मिले हैं। लंबी दूरी के संपर्कों की ओर संकेत करने वाली अन्य पुरातात्विक खोजों में हड़प्पाई मुहरें, बाट, पासे तथा मनके शामिल हैं।
मुहरें तथा मुद्रांकन का प्रयोग : मुहरों और मुद्रांकनों का प्रयोग लंबी दूरी के संपर्कों को सुविधाजनक बनाने के लिए होता था। सुदूर भेजे जाने वाले वस्तुओं के थैलों को बाँधकर उसकी रस्सी को मिटटी लगाकर मुहरों से मुद्रांकित कर दिया जाता था | जिससे प्रेषक (भेजने वाला) की पहचान हो जाती थी और वस्तुएँ सुरक्षित अन्य स्थानों तक पहुँचा दिया जाता था |
हड़प्पाई मुहरों की विशेषताएँ :
(i) इस पर एक रहस्यमयी लिपि अंकित होती है जो संभवत: मालिक के नाम और पदवी को दर्शाता था |
(ii) इस पर बने चित्र अनपढ़ लोगों को सांकेतिक रूप से इसका अर्थ बताता था |
(iii) यह लिपि दाई से बाई ओर लिखी जाती थी |
(iv) इस लिपि को अबतक पढ़ा नहीं जा सका है इसलिए इन्हें रहस्यमयी लिपि कहते हैं |
अबतक प्राप्त लिखावट वाली वस्तुएँ :
मुहरें, ताँबें के औजार, मर्तबान के अंवाठ, ताँबें तथा मिटटी की लघु पट्टिकाएं, आभूषण, अस्थि छड़ें तथा प्राचीन सूचना पट |
बाट की विशेषताएँ :
(i) विनिमय बाटों की एक सूक्ष्म या परिशुद्ध प्रणाली द्वारा नियंत्रित थे।
(ii) ये बाट सामान्यतः चर्ट नामक पत्थर से बनाए जाते थे और आमतौर पर ये किसी
भी तरह के निशान से रहित घनाकार होते थे।
(iii) इन बाटों के निचले मानदंड द्विआधारी (1, 2, 4, 8, 16, 32 इत्यादि 12,800
तक) थे जबकि ऊपरी मानदंड दशमलव प्रणाली का अनुसरण करते थे।
(iv) छोटे बाटों का प्रयोग संभवतः आभूषणों और मनकों को तौलने के लिए किया जाता था।
हड़प्पा सभ्यता का अंत :
हड़प्पा सभ्यता का अंत लगभग 1800 ईसा पूर्व हुआ था |
(i) जलवायु परिवर्तन : कुछ विद्वानों का तर्क है कि हड़प्पा सभ्यता अंत जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, अत्यधिक बाढ़ नदियों का सुख जाना या उनका मार्ग बदल लेना है |
(ii) शहरों का पतन तथा परित्याग : कुछ विद्वानों के इस तर्क को बल मिलता है कि इस सभ्यता में आए विषम परिस्थियों के कारण यहाँ के निवासी शहरों को त्याग दिये या शहरों का पतन हो गया |
(iii)
कनिंघम का भ्रम अथवा कनिंघम द्वारा हड़प्पा के महत्व को समझने में चुक :
(i) कनिंघम उत्खनन के समय ऐसी पुरावस्तुओं खोजने का प्रयास करते थे जो उनके विचार से सांस्कृतिक महत्व की थी |
(ii) हड़प्पा जैसे पुरास्थल कनिंघम के खोज कार्य की प्रकृति से बिलकुल अलग था क्योंकि हड़प्पा जैसा पूरास्थल चीनी यात्रियों के यात्रा-कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था और न कोई आरंभिक ऐतिहासिक शहर था |
(iii) हड़प्पा कनिंघम के खोज के ढाँचें में उपयुक्त नहीं बैठता था |
(iv) हड़प्पाई पुरावस्तुएँ उन्नीसवीं शताब्दी में कभी-कभी मिलती थीं और इनमें से कुछ तो कनिंघम तक पहुँची भी थीं, फिर भी वह समझ नहीं पाए कि ये पुरावस्तुएँ कितनी प्राचीन थीं।
(v) कनिंघम का मानना था कि भारतीय इतिहास का आरम्भ गंगा की घाटी में पनपे पहले शहरों के साथ ही हुआ था | चूँकि उनकी अवधारणा सुनिश्चित थी इसलिए वे हड़प्पा के महत्व को समझने में चुक गए |
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Chapter 1. ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ
Chapter 2. राजा, किसान और नगर
Chapter 3. बधुत्व, जाति तथा वर्ग
Chapter 4. विचारक, विश्वास और इमारतें
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