Chapter 7. समकालीन विश्व में सुरक्षा Political Science-I class 12 exercise topic-3
Chapter 7. समकालीन विश्व में सुरक्षा Political Science-I class 12 exercise topic-3 ncert book solution in hindi-medium
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सुरक्षा के पारंपरिक धारणा
सुरक्षा का अर्थ : सुरक्षा का बुनियादी अर्थ है खतरे से आजादी | परन्तु केवल उन चीजों को ‘सुरक्षा’ से जुड़ी चीजों का विषय बनाया जाय जिनसे जीवन के ‘केन्द्रीय मूल्यों’ को खतरा हो।
सुरक्षा धारणा :
(1) सुरक्षा के पारंपरिक धारणा - बाहरी सुरक्षा
इस धारणा से हमारा तात्पर्य है राष्ट्रीय सुरक्षा की धरणा से होता है। सुरक्षा की पारंपरिक अवधरणा में सैन्य ख़तरे को किसी देश के लिए सबसे ज्यादा ख़तरनाक माना जाता है। इस ख़तरे का स्रोत कोई दूसरा मुल्क होता है जो सैन्य हमले की धमकी देकर संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता जैसे किसी देश के केन्द्रीय मूल्यों के लिए ख़तरा पैदा करता है।
(2) सुरक्षा के पारंपरिक धारणा - आतंरिक सुरक्षा
इस धारणा से हमारा तात्पर्य है देश के भीतर अंदरूनी खतरों से जिसमें आपसी लड़ियाँ, गृह युद्ध, सरकार के प्रति असंतुष्टि से है | यह सुरक्षा आंतरिक शांति और कानून-व्यवस्था पर निर्भर करता है | इसमें अपने ही देश के लोगों से खतरा होता है |
किसी सरकार के पास युद्ध की स्थिति में विकल्प :
बुनियादी तौर पर किसी सरकार के पास युद्ध की स्थिति में तीन विकल्प होते हैं -
(i) आत्मसमर्पण करना
(ii) दूसरे पक्ष की बात को बिना युद्ध किए मान लेना अथवा युद्ध से होने वाले नाश को इस हद तक बढ़ाने के संकेत देना कि दूसरा पक्ष सहमकर हमला करने से बाज आये या युद्ध ठन जाय तो
अपनी रक्षा करना ताकि हमलावर देश अपने मकसद में कामयाब न हो सके और पीछे हट जाए अथवा
(iii) हमलावार को पराजित कर देना।
अपरोध : युद्ध में कोई सरकार भले ही आत्मसमर्पण कर दे लेकिन वह इसे अपने देश की नीति के रूप में कभी प्रचारित नहीं करना चाहेगी। इस कारण, सुरक्षा-नीति का संबंध् युद्ध की आशंका को रोकने में होता है जिसे ‘अपरोध्’ कहा जाता है |
रक्षा : युद्ध को सीमित रखने अथवा उसको समाप्त करने से होता है जिसे रक्षा कहा जाता है।
परम्परागत सुरक्षा निति के तत्व :
(i) शक्ति-संतुलन : कोई देश अपने ऊपर होने वाले संभावित युद्ध या किसी अन्य खतरों के प्रति सदैव संवेदनशील रहता है | वह कई तरीकों से निर्णय अथवा शक्ति-संतुलन को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता रहता है | अपने उपर खतरे वाले देश से शक्ति संतुलन को बनाये रखने के लिए वह अपनी सैन्य शक्ति बढाता है, आर्थिक और प्रोद्योगिकी शक्ति को बढाता है और मित्र देशों से ऐसी स्थितयों से निपटने के लिए संधियाँ करता है |
(ii) गठबंधन बनाना : गठबंधन में कई देश शामिल होते हैं और सैन्य हमले को रोकने अथवा उससे रक्षा करने के लिए समवेत कदम उठाते हैं। अधिकांश गठबन्धनों को लिखित संधि से एक औपचारिक रूप मिलता है और ऐसे गठबंधन को यह बात बिलकुल स्पष्ट रहती है कि खतरा किससे है। किसी देश अथवा गठबंधन की तुलना में अपनी ताकत का असर बढ़ाने के लिए देश गठबंधन बनाते हैं।
गठबंधन का आधार :
(i) किसी देश अथवा गठबंधन की तुलना में अपनी ताकत का असर बढ़ाने के लिए देश गठबंधन बनाते हैं।
(ii) गठबंधन राष्ट्रिय हितों पर आधारित होते है और राष्ट्रिय हितों के बदल जाने पर गठबंधन भी बदल जाते है |
एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों के सामने खड़ी सुरक्षा की चुनौतियाँ:
एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों के सामने खड़ी सुरक्षा की चुनौतियाँ यूरोपीय देशों के मुकाबले दो मायनों में विशिष्ट थीं।
(i) एक तो इन देशों को अपने पड़ोसी देश से सैन्य हमले की आशंका थी।
(ii) दूसरे, इन्हें अंदरूनी सैन्य-संघर्ष की भी चिंता करनी थी।
सुरक्षा की परंपरागत धारणा में युद्ध निति : सुरक्षा की परंपरागत धारणा में स्वीकार किया जाता है कि हिंसा का इस्तेमाल यथासंभव सीमित होना चाहिए। इसमें ‘न्याय-युद्ध’ की यूरोपीय परंपरा का ही यह परवर्ती विस्तार है कि आज लगभग पूरा विश्व मानता है -
(i) किसी देश को युद्ध उचित कारणों यानी आत्म-रक्षा अथवा दूसरों को जनसंहार से बचाने के लिए ही करना चाहिए।
(ii) इस दृष्टिकोण के अनुसार किसी युद्ध में युद्ध-साधनों का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए।
(iii) युद्धरत् सेना को चाहिए कि वह संघर्षविमुख शत्रु, निहत्थे व्यक्ति अथवा आत्मसपर्मण करने वाले शत्रु को न मारे।
(iv) सेना को उतने ही बल का प्रयोग करना चाहिए जितना आत्मरक्षा के लिए जरुरी हो और उसे एक सीमा तक ही हिंसा का सहारा लेना चाहिए।
(v) सुरक्षा की परंपरागत धरणा इस संभावना से इन्कार नहीं करती कि देशों के बीच एक न एक रूप में सहयोग हो। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है - निरस्त्रीकरण, अस्त्र-नियंत्रण तथा विश्वास की बहाली।
शीतयुद्ध के कारण तीसरी दुनियाँ में हुए युद्ध : दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जितने युद्ध हुए उसमें एक तिहाई युद्धों के लिए शीतयुद्ध जिम्मेदार रहा। इनमें से अधिकांश युद्ध तीसरी दुनिया में हुए।
(i) जिस तरह विदा होती औपनिवेशिक ताकतों को उपनिवेशों में खून-खराबे का भय सता रहा था उसी तरह आजादी के बाद कुछ उपनिवेशित मुल्कों को डर था कि उनके यूरोपीय औपनिवेशिक शासक कहीं उन पर हमला न बोल दें।
(ii) ऐसे में इन मुल्कों को एक साम्राज्यवादी युद्ध से अपनी रक्षा के लिए तैयारी करनी पड़ी।
(iii) तीसरी दुनियाँ के इन देशों को जोर पकड़ते शीतयुद्ध की चिंता करनी थी और दूसरे खेमे में जाने वाले अपने पड़ोसी देश अथवा दूसरे गुट के नेता (संयुक्त राज्य अमरीका अथवा सोवियत संघ) से दुश्मनी ठाननी थी या अमरीका अथवा सोवियत संघ के किसी साथी देश से वैर मोलना था।
निरस्त्रीकरण : निरस्त्रीकरण का अर्थ होता है अस्त्र-शात्रों को समाप्त करना अथवा निरस्त्राीकरण में माँग होती है कि सभी राज्य चाहे उनका आकार, ताकत और प्रभाव कुछ खास किस्म के हथियारों से बाज आयें।
निरस्त्रीकरण के अंतर्गत हुई संधियाँ : निरस्त्रीकरण के अंतर्गत जो संधियाँ हुई उनकी निम्न प्रमुख बातें थी -
(i) जैविक और रासायनिक हथियार को बनाना और रखना प्रतिबंधित कर दिया गया है।
(ii) 155 से ज्यादा देशों ने BWC संधि पर और 181 देशों ने CWC संधि हस्ताक्षर किए हैं।
(iii) इन दोनों संधियों पर दस्तख़्त करने वालों में सभी महाशक्तियाँ शामिल हैं।
निर्सत्रिकरण की संधियाँ :
(i) 1972 की जैविक हथियार संधि (बॉयोलॉजिकल वीपन्स कांवेंसन BWC)
(ii) 1992 की रासायनिक हथियार संधि (केमिकल वीपन्स कंवेंशन- CWC)
अस्त्र-नियंत्रण : अस्त्र नियंत्रण के अंतर्गत हथियारों को विकसित करने अथवा उनको हासिल करने के संबंध् में कुछ कानूनों का पालन करना पड़ता है।
1972 की एंटी बैलेस्टिक मिसाइल संधि (ABM) : सन् 1972 की एंटी बैलेस्टिक मिसाइल संधि (ABM) ने अमरीका और सोवियत संघ को बैलेस्टिक मिसाइलों को रक्षा-कवच के रूप में इस्तेमाल करने से रोका। ऐसे प्रक्षेपास्त्रों से हमले की शुरुआत की जा सकती थी। संधियों में दोनों देशों को सीमित संख्या में ऐसी रक्षा-प्रणाली तैनात करने की अनुमति थी लेकिन इस संधि ने दोनों देशों को ऐसी रक्षा-प्रणाली के व्यापक उत्पादन से रोक दिया।
परमाणु अप्रसार संधि (न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी - NPT) : परमाणु अप्रसार संधि (न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी - NPT) को 1968 में बनाया गया था | यह भी अस्त्र नियंत्रण संधि था क्योंकि इसने परमाण्विक हथियारों के उपार्जन को कायदे-कानून के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया |
परमाणु अप्रसार संधि (न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी - NPT) की विशेषताएँ :
(i) जिन देशों ने सन् 1967 से पहले परमाणु हथियार बना लिये थे या उनका परीक्षण कर लिया था उन्हें इस संधि के अंतर्गत इन हथियारों को रखने की अनुमति दी गई।
(ii) जो देश सन् 1967 तक ऐसा नहीं कर पाये थे उन्हें ऐसे हथियारों को हासिल करने के अधिकार से वंचित किया गया।
(iii) परमाणु अप्रसार संधि ने परमाण्विक आयुधों को समाप्त तो नहीं किया लेकिन इन्हें हासिल कर सकने
वाले देशों की संख्या जरूर कम की।
विश्वास बहाली की प्रक्रिया : विश्वासी बहाली की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि प्रतिद्वन्द्वी देश किसी गलतफहमी या गफलत में पड़कर जंग के लिए आमादा न हो जाएँ।
दो प्रतिद्वंदी देशों के बीच विश्वास बहाली की प्रक्रिया : सुरक्षा की पारंपरिक धरणा में यह बात भी मानी गई है कि विश्वास बहाली के उपायों से देशों के बीच हिंसाचार कम किया जा सकता है।
(i) विश्वास बहाली की प्रक्रिया में सैन्य टकराव और प्रतिद्वन्द्विता वाले देश सूचनाओं तथा विचारों के नियमित आदान-प्रदान का फैसला करते हैं।
(ii) दो देश एक-दूसरे को अपने फौजी मकसद तथा एक हद तक अपनी सैन्य योजनाओं के बारे में बताते हैं।
(iii) ऐसा करके ये देश अपने प्रतिद्वन्द्वी को इस बात का आश्वासन देते हैं कि उनकी तरफ से औचक हमले की
योजना नहीं बनायी जा रही।
(iv) देश एक-दूसरे को यह भी बताते हैं कि उनके पास किस तरह के सैन्य-बल हैं। वे यह भी बता सकते हैं कि इन बलों को कहाँ तैनात किया जा रहा है।
सुरक्षा के अपारंपरिक धारणा
सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा : सुरक्षा की अपारंपरिक धरणा सिर्फ सैन्य खतरों से संबद्ध नहीं। इसमें मानवीय अस्तित्व पर चोट करने वाले व्यापक खतरों और आशंकाओं को शामिल किया जाता है।
सुरक्षा के तीन तत्व :
(i) किन चीजों की सुरक्षा
(ii) किन खतरों से सुरक्षा
(iii) सुरक्षा के तरीके
मानवता की सुरक्षा’ अथवा ‘विश्व-रक्षा’ : ‘‘सिर्फ राज्य ही नहीं व्यक्तियों और समुदायों या कहें कि समूची मानवता को सुरक्षा की जरूरत है।’’ इसी कारण सुरक्षा की अपारंपरिक धरणा को ‘मानवता की सुरक्षा’ अथवा ‘विश्व-रक्षा’ कहा जाता है।
मानवता की रक्षा का महत्व :
(i) मानवता की रक्षा का विचार जनता- जनार्दन की सुरक्षा को राज्यों की सुरक्षा से बढ़कर मानता है।
(ii) मानवता की सुरक्षा और राज्य की सुरक्षा एक-दूसरे के पूरक होने चाहिए और अक्सर होते भी हैं। लेकिन
सुरक्षित राज्य का मतलब हमेशा सुरक्षित जनता नहीं होता।
(iii) नागरिकों को विदेशी हमले से बचाना भले ही उनकी सुरक्षा की जरूरी शर्त्त हो लेकिन इतने भर को पर्याप्त नहीं माना जा सकता। सच्चाई यह है कि पिछले 100 वर्षों में जितने लोग विदेशी सेना के हाथों मारे गए उससे कहीं ज्यादा लोग खुद अपनी ही सरकारों के हाथों खेत रहे।
(iv) इसका प्राथमिक लक्ष्य व्यक्तियों की रक्षा है |
(v) मानवता की रक्षा के व्यापकतम नजरिए में जोर ‘अभाव से मुक्ति’ और ‘भय से मुक्ति’ पर दिया जाता है।
मानवता की रक्षा के सन्दर्भ में संयुक्त राष्ट्र के भूतपूर्व महासचिव कोफ़ी अन्नान के कथन :
"व्यक्तियों और समुदायों को अंदरूनी खून - खराबा से बचाना।’
मानवता की सुरक्षा का व्यापक अर्थ लेने वाले पैरोकारों का तर्क:
मानवता की सुरक्षा का व्यापक अर्थ लेने वाले पैरोकारों का तर्क है कि खतरों की सूची में अकाल, महामारी और आपदाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि युद्ध, जन-संहार और आतंकवाद से मिलकर जितने लोगों को मरते हैं उससे कहीं ज्यादा लोग महामारी और प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ जाते हैं।"|
मानवता की सुरक्षा के व्यापकतम अर्थ : मानवता की सुरक्षा के व्यापकतम अर्थ में आर्थिक सुरक्षा और मानवीय गरिमा की सुरक्षा को भी शामिल किया जाता है। तनिक अलग अंदाज में कहें तो मानवता की रक्षा के व्यापकतम नजरिए में जोर ‘अभाव से मुक्ति’ और ‘भय से मुक्ति’ पर दिया जाता है।
विश्वव्यापी खतरे :
(i) वैश्विक तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग)
(ii) अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद
(iii) एड्स और बर्ड फ्लू जैसी महामारियाँ
सुरक्षा के अपारम्परिक धारणा के दो पक्ष :
(i) मानवता की सुरक्षा
(ii) विश्व सुरक्षा
अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद :
(i) आतंकवाद का आशय राजनीतिक खून-खराबे से है जो जान-बूझकर और बिना किसी मुरौव्वत के नागरिकों को अपना निशाना बनाता है।
(ii) अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद एक से ज्यादा देशों में व्याप्त है और उसके निशाने पर कई देशों के नागरिक हैं।
(iii) कोई राजनीतिक संदर्भ या स्थिति नापसंद हो तो आतंकवादी समूह उसे बल-प्रयोग अथवा बल-प्रयोग की धमकी देकर बदलना चाहते हैं।
(iv) जनमानस को आतंकित करने के लिए नागरिकों को निशाना बनाया जाता है और आतंकवाद नागरिकों के असंतोष का इस्तेमाल राष्ट्रीय सरकारों अथवा संघर्षों में शामिल अन्य पक्ष के खि़लाफ करता है।
अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के उदाहरण :
(i) आतंकवाद के चिर-परिचित उदाहरण हैं विमान-अपहरण अथवा भीड़ भरी जगहों जैसे रेलगाड़ी, होटल, बाजार या ऐसी ही अन्य जगहों पर बम लगाना।
(ii) सन् 2001 के 11 सितंबर को आतंकवादियों ने अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला बोला। इस घटना
के बाद से दूसरे मुल्क और वहाँ की सरकारें आतंकवाद पर ज्यादा ध्यान देने लगी हैं। बहरहाल, आतंकवाद कोई नयी परिघटना नहीं है। गुजरे वक्त में आतंकवाद की अधिकांश घटनाएँ मध्यपूर्व, यूरोप, लातिनी अमरीका और दक्षिण एशिया में हुईं।
मानवाधिकार की कोटियाँ :
(i) राजनीतिक अधिकारों की है जैसे अभिव्यक्ति और सभा करने की आज़ादी ।
(ii) आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की
(iii) उपनिवेशिकृत जनता अथवा जातीय और मूलवासी अल्पसंख्यकों के अधिकार
मानवाधिकारों पर सहमती न होने के कारण :
(i) इनमें से किस कोटि के अधिकारों को सार्वभौम मानवाधिकारों की संज्ञा दी जाए
(ii) इन अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को क्या करना चाहिए?
आतंरिक रूप से विस्थापित जन :
जो लोग अपना घर-बार छोड़ चुके हैं परंतु राष्ट्रीय सीमा के भीतर ही हैं उन्हें 'आतंरिक रूप से विस्थापित
जन' कहा जाता है।
उदाहरण : 1990 के दशक के शुरुआती सालों में हिंसा से बचने के लिए कश्मीर घाटी छोड़ने वाले कश्मीरी पंडित आतंरिक रूप से विस्थापित जन उदाहरण हैं |
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फ़ैलने वाली बीमारियाँ :
(i) एचआईवी-एड्स, बर्ड फ्लू और सार्स (सिवियर एक्यूट रेसपिरेटॅरी सिंड्रोम-SARS) जैसी महामारियाँ आप्रवास, व्यवसाय, पर्यटन और सैन्य-अभियानों के जरिए बड़ी तेजी से विभिन्न देशों में फैली हैं। इन बीमारियों के फैलाव को रोकने में किसी एक देश की सफलता अथवा असफलता का प्रभाव दूसरे देशों में होने वाले संक्रमण पर पड़ता है।
(ii) एबोला वायरस, हैन्टावायरस और हेपेटाइटिस-सी जैसी कुछ नयी महामारियाँ उभरी हैं जिनके बारे में जानकारी भी कुछ खास नहीं है। टीबी, मलेरिया, डेंगी बुखार और हैजा जैसी पुरानी महामारियों ने औषधि-प्रतिरोधक रूप धारण कर लिया है और इससे इनका उपचार कठिन हो गया है। जानवरों में महामारी फैलने के भारी आर्थिक दुष्प्रभाव होते हैं।
(iii) 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध के सैलून से ब्रिटेन ने "मैड-काऊ" महामारी के भड़क उठने के कारण अरबों डॉलर का नुकसान उठाया है और बर्ड फ्लू के कारण कई दक्षिण एशियाई देशों को मुर्ग निर्यात बंद करना पड़ा |
सहयोगमूलक सुरक्षा
सहयोगमूलक सुरक्षा :
सुरक्षा पर मंडराते अनेक अपारंपरिक ख़तरों से निपटने के लिए सैन्य- संघर्ष की नहीं बल्कि आपसी सहयोग की
जरुरत है। आतंकवाद से लड़ने अथवा मानवाधिकारों को बहाल करने में भले ही सैन्य-बल की कोई भूमिका हो लेकिन गरीबी मिटाने, तेल तथा बहुमूल्य धातुओं की आपूर्ति बढ़ाने, आप्रवासियों और शरणार्थियों की आवाजाही के प्रबंधन तथा महामारी के नियंत्रण में सैन्य-बल की बजाय देशों की आपसी सहयोग द्वारा निपटा जा सकता है |
सहयोग मूलक व्यवस्था में विभिन्न तत्वों की भूमिका :
(i) द्विपक्षीय (दो देशों वेफ बीच) सहयोग, क्षेत्रीय सहयोग, महादेशीय अथवा वैश्विक स्तर का सहयोग |
(ii) सहयोगमूलक सुरक्षा में विभिन्न देशों के अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर की अन्य संस्थाएँ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन ;संयुक्त राष्ट्रसंघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि) स्वयंसेवी संगठन (एमनेस्टी
इंटरनेशनल, रेड क्रॉस, निजी संगठन तथा दानदाता संस्थाएँ, चर्च और धर्मिक संगठन, मजदूर संगठन, सामाजिक और विकास संगठन) और
(iii) कुछ जानी-मानी हस्तियाँ जैसे नेल्सन मंडेला एवं मदर टेरेसा |
(iv) अंतिम उपाय के रूप में बल प्रयोग ऐसा अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के अनुमति से किया जा सकता है !
भारत के समक्ष खतरे :
(i) पारंपरिक (सैन्य)
(ii) अपारंपरिक (आतंरिक)
भारत के सुरक्षा निति के घटक :
भारत की सुरक्षा-नीति के चार बड़े घटक हैं और अलग-अलग वक्त में इन्हीं घटकों के हेर-फेर से सुरक्षा की रणनीति बनायी गई है।
(i) सैन्य-क्षमता को मजबूत करना : सुरक्षा-नीति का पहला घटक रहा सैन्य-क्षमता को मजबूत करना क्योंकि भारत पर पड़ोसी देशों से हमले होते रहे हैं। पाकिस्तान ने 1947-48, 1965, 1971 तथा 1999 में और चीन ने सन् 1962 में भारत पर हमला किया। दक्षिण एशियाई इलाके में भारत के चारों तरफ परमाणु हथियारों से लैस देश हैं। ऐसे में भारत के परमाणु परीक्षण करने के फैसले (1998) को उचित ठहराते हुए भारतीय सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क दिया था। भारत ने सन् 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया था।
(ii) सुरक्षा हितों को बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कायदों और संस्थाओं को मजबूत करना : भारत की सुरक्षा नीति का दूसरा घटक है अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कायदों और संस्थाओं को मजबूत करना। भारत के पहले प्रधनमंत्राी जवाहरलाल नेहरू ने एशियाई एकता, अनौपनिवेशीकरण (Decolonisation) और निरस्त्रीकरण के प्रयासों की हिमायत की। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय
संघर्षों में संयुक्त राष्ट्रसंघ को अंतिम पंच मानने पर जोर दिया।
(iii) देश की अंदरूनी सुरक्षा-समस्याओं से निबटने की तैयारी : भारत की सुरक्षा रणनीति का तीसरा घटक है देश की अंदरूनी सुरक्षा-समस्याओं से निबटने की तैयारी। नगालैंड, मिजोरम, पंजाब और कश्मीर जैसे क्षेत्रों से कई उग्रवादी समूहों ने समय-समय पर इन प्रांतों को भारत से अलगाने की कोशिश की। भारत ने राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का पालन किया है। यह विभिन्न समुदायों और जन-समूहों को अपनी शिकायतों को खुलकर रखने और सत्ता में भागीदारी करने का मौका देती है।
(iv) अर्थव्यवस्था को विकसित करना : भारत में अर्थव्यवस्था को इस तरह विकसित करने के प्रयास किए गए हैं कि बहुसंख्यक नागरिकों को गरीबी और अभाव से निजात मिले तथा नागरिकों के बीच आर्थिक असमानता ज्यादा न हो।
topic-3
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Political Science-I Chapter List
Chapter 1. शीतयुद्ध का दौर
Chapter 2. दो ध्रुवीयता का अंत
Chapter 3. समकालीन विश्व में अमरीकी वर्चस्व
Chapter 4. सत्ता के वैकल्पिक केंद्र
Chapter 5. समकालीन दक्षिण एशिया
Chapter 6. अंतर्राष्ट्रीय संगठन
Chapter 7. समकालीन विश्व में सुरक्षा
Chapter 8. पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन
Chapter 9. वैश्वीकरण
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