Chapter 9. राजा और विभिन्न वृतान्त History Part-2 class 12 exercise मुग़ल साम्राज्य में संचार एवं सुचनायें
Chapter 9. राजा और विभिन्न वृतान्त History Part-2 class 12 exercise मुग़ल साम्राज्य में संचार एवं सुचनायें ncert book solution in hindi-medium
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मुग़ल वंश
मुग़ल शब्द : सोलहवीं शताब्दी के दौरान यूरोपियों ने परिवार की इस शाखा के भारतीय शासकों का वर्णन करने के लिए मुग़ल शब्द का प्रयोग किया। मुग़ल नाम मंगोल से व्युत्पन्न हुआ है |
मुग़ल वंश : पितृपक्ष से मुग़ल तुर्की शासक तिमुरी से वंशज थे | पहला मुग़ल शासक बाबर मातृपक्ष से चंगेश खाँ का संबंधी था। वह तुर्की बोलता था और उसने मंगोलों का उपहास करते हुए उन्हें बर्बर गिरोह के रूप में उल्लिखित किया है।
मुग़ल साम्राज्य का विस्तार : मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक जहिरुदीन बाबर को उसके मध्य एशियाई स्वदेश फरगाना से उसके उजबेक प्रतिद्वंदियों में उसे भगा दिया | उसने सबसे पहले स्वयं को काबुल में स्थापित किया और फिर 1526 में अपने दल के सदस्यों की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए क्षेत्रों और संसाधनों की खोज में वह भारतीय उपमहाद्वीप में और आगे की ओर बढ़ा। बाबर के उतराधिकारी नसीरूदीन हुमायूँ (1530-40, 1555-56) ने साम्राज्य की सीमाओं में विस्तार किया किंतु वह अफगान नेता शेरशाह सुर से पराजित हो गया जिसने उसे ईरान के सफावी शासक के दरबार में निर्वासित होने के लिए बाध्य कर दिया | 1555 में हुमायूँ ने सूरों को पराजित कर दिया किंतु एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद तीसरे मुग़ल शासक अकबर ने मुग़ल सीमाओं का विस्तार किया | इसे अपने समय का विशालतम, दृढ़तम और सबसे समृद्ध राज्य बनाकर सुदृढ़ भी किया। अकबर के बाद जहाँगीर (1605-27), शाहजहाँ (1628-58) और औरंगजेब (1658-1707) के रूप में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्वों वाले तीन बहुत योग्य उत्तराधिकारी हुए। इनके अधीन क्षेत्रीय विस्तार जारी रहा यद्यपि इसकी गति काफी धीमी रही।
सोलहवी और सत्रहवीं सदी के मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था की विशेषताएँ :
(i) सोलहवीं और सत्राहवीं शताब्दियों के दौरान शाही संस्थाओं के ढाँचे का निर्माण हुआ। '
(ii) इनके अंतर्गत प्रशासन और कराधान के प्रभावशाली तरीके शामिल थे। मुग़ल शक्ति का सुस्पष्ट केंद्र दरबार था |
(iii) राजनीतिक संबंध गढ़े जाते थे, साथ ही श्रेणियाँ और हैसियतें परिभाषित की जाती थीं।
(iv) मुग़लों द्वारा शुरू की गई राजनीतिक व्यवस्था सैन्य शक्ति और उपमहाद्वीप की भिन्न-भिन्न परंपराओं को समायोजित करने की चेतन नीति के संयोजन पर आधारित थी।
मुग़ल साम्राज्य और दरबार के अध्ययन के महत्वपूर्ण स्रोत : इतिवृत
मुग़ल बादशाहों द्वारा तैयार करवाए गए इतिवृत्त साम्राज्य और उसके दरबार के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। ये इतिवृत्त इस साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों के सामने एक प्रबुद्ध राज्य के दर्शन की प्रायोजना के उद्देश्य से लिखे गए थे। इसी तरह इनका उद्देश्य उन लोगों को, जिन्होंने मुग़ल शासन का विरोध किया था, यह बताना भी था कि उनके सारे विरोधों का असपफल होना नियत है। मुग़ल इतिवृत्तों के लेखक निरपवाद रूप से दरबारी ही रहे। उन्होंने जो इतिहास लिखे उनके केंद्रबिंदु में थीं शासक पर केन्द्रित घटनाएँ, शासक का परिवार, दरबार व अभिजात, युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ। अकबर, शाहजहाँ और आलमगीर (मुग़ल शासक औरंगजेब की एक पदवी) की कहानियों पर आधारित इतिवृत्तों के शीर्षक अकबरनामा, शाहजहाँनामा, आलमगीरनामा यह संकेत करते हैं कि इनके लेखकों की निगाह में साम्राज्य व दरबार का इतिहास और बादशाह का इतिहास एक ही था।
इतिवृतों के केंद्रबिंदु :
(i) शासक पर केन्द्रित घटनाएँ,
(ii) शासक का परिवार,
(iii) दरबार व अभिजात,
(iv) युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ
मुग़ल इतिवृतों की विशेषताएँ :
(i) मुग़ल इतिहास मुग़ल बादशाहों द्वारा तैयार करवाए गए राजवंशीय इतिहास है |
(ii) ये घटनाओं का कालक्रम के अनुसार विवरण प्रस्तुत करते हैं |
(iii) मुग़लों के इतिहास लिखने के इच्छुक किसी भी लेखक के लिए ये इतिवृत स्रोत महत्वपूर्ण है |
(iv) एक ओर ये इतिवृत मुग़ल राज्य की संस्थाओं के बारे जानकारी देते हैं तो दूसरी ओर ये उनके उदेश्यों पर प्रकाश डालते है |
(v) ये ये भी बताते हैं कि किस प्रकार शाही विचारधारा रची और प्रचारित की जाती है |
मुग़ल दरबारी भाषा : मुग़लों की अपनी मातृभाषा तुर्की थी परन्तु मुग़ल दरबारी इतिहास फारसी में लिखे गए थे | मुग़ल चगताई मूल के थे | चगताई तुर्क स्वयं को चंगेज खां से सबसे बड़े पुत्र का
वंशज मानते थे | बाबर ने कविताएँ और अपने संस्मरण तुर्की भाषा में लिखे थे | अकबर ने फारसी भाषा को दरबार का मुख्य भाषा बनाया |
अबु फजल की भाषा शैली की विशेषताएँ :
(i) अबुल फज़ल की भाषा बहुत ही अलंकृत थी क्योंकि इस भाषा के पाठों को ऊँची आवाज़ में पढ़ा जाता था |
(ii) उसके भाषा में लय और कथन शैली को बहुत ही महत्व दिया जाता था |
(iii) उसकी भाषा भारतीय-फारसी शैली की थी जिसे मुग़ल दरबार से संरक्षण प्राप्त था |
मुग़लकाल के महत्वपूर्ण इतिहासकार या लेखक:
(i) अकबरनामा - अबुल अफ़ज
(ii) बादशाहनामा - अब्दुल हामिद लाहौरी
मुग़ल शासक अकबर द्वारा फारसी भाषा को दरबारी भाषा बनाए जाने का कारण :
(i) अकबर ने सोंच-समझकर फारसी को दरबार की मुख्य भाषा बनाया। संभवतया ईरान के साथ सांस्कृतिक और बौद्धिक संपर्कों के साथ-साथ मुग़ल दरबार में पद पाने को इच्छुक ईरानी और मध्य एशियाई प्रवासियों ने बादशाह को इस भाषा को अपनाए जाने के लिए प्रेरित किया होगा।
(ii) फारसी को दरबार की भाषा का ऊँचा स्थान दिया गया तथा उन लोगों को शक्ति व प्रतिष्ठा प्रदान की गई जिनकी इस भाषा पर अच्छी पकड़ थी।
(iii) राजा, शाही परिवार के लोग और दरबार के विशिष्ट सदस्य यह भाषा बोलते थे। कुछ और आगे यह सभी स्तरों के प्रशासन की भाषा बन गई जिससे लेखाकारों, लिपिकों तथा अन्य अधिकारियों ने भी इसे सीख लिया।
(iv) सोलहवें और सत्रहवीं शताब्दियों के दौरान फारसी का प्रयोग करने वाले लोग उपमहाद्वीप के कई अलग-अलग क्षेत्रों से आए थे और वे अन्य भारतीय भाषाएँ भी बोलते थे अतः स्थानीय मुहावरों को समाविष्ट करने से फारसी का भी भारतीयकरण हो गया था।
(v) फारसी के हिदंवी के साथ पारस्परिक संपर्क से उर्दू के रूप में एक नयी भाषा निकल कर आई।
(vi) मुग़ल बादशाहों ने महाभारत और रामायण जैसे संस्कृत ग्रंथों को फारसी में अनुवादित किए जाने का आदेश दिया।
मुग़ल दरबार में पांडुलिपियों की तैयार करने की प्रक्रिया :
(i) मुग़ल भारत की सभी पुस्तके पांडुलिपियों के रूप में थीं अर्थात् वे हाथ से लिखी होती थीं। पांडुलिपि रचना का मुख्य केंद्र शाही किताबख़ाना था।
(ii) किताबख़ाना शब्द पुस्तकालय के रूप में अनुवादित किया जा सकता है, यह दरअसल एक लिपिघर था अर्थात ऐसी जगह जहाँ बादशाह की पांडुलिपियों का संग्रह रखा जाता तथा नयी पांडुलिपियों की रचना की जाती थी।
(iii) पांडुलिपियों की रचना में विविध प्रकार के कार्य करने वाले बहुत लोग शामिल होते थे।
(iv) कागज बनाने वालों की पांडुलिपि के पन्ने तैयार करने, सुलेखकों की पाठ की नकल तैयार करने, कोफ़्तगरों की पृष्ठों को चमकाने के लिए इसके विशेषज्ञ होते थे |
(v) चित्रकारों की पाठ से दृश्यों को चित्रित करने के लिए और जिल्दसाजों की प्रत्येक पन्ने को इक्कठा कर उसे अलंकृत आवरण में बैठाया जाता था |
इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य जिससे मुग़ल राजाओं पर दैवीय प्रकाश था :
दरबारी इतिहासकारों ने कई साक्ष्यों का हवाला देते हुए यह दिखाया कि मुगल राजाओं को सीधे ईश्वर से शक्ति मिली थी। उनके द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य निम्नलिखित थे -
(i) उनके द्वारा वर्णित दंतकथाओं में से एक मंगोल रानी अलानकुआ की कहानी है जो अपने
शिविर में आराम करते समय सूर्य की एक किरण द्वारा गर्भवती हुई थी। उसके द्वारा जन्म लेने वाली संतान पर इस दैवीय प्रकाश का प्रभाव था।
(ii) इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह प्रकाश हस्तांतरित होता रहा। ईश्वर से निःसृत प्रकाश को ग्रहण करने वाली चीजों के पदानुक्रम में मुग़ल राजत्व को अबलु फजल ने उच्चे स्थान पर
रखा।
(iii) इस विषय में वह प्रसिद्द ईरानी सूफी शिहाबद्दु सुहरावर्दी (1191 में मृत) के विचारों से प्रभावित था जिसने सर्वप्रथम इस प्रकार का विचार प्रस्तुत किया था। इस विचार के अनुसार एक पदानुक्रम यह दैवीय प्रकाश राजा में संप्रेषित होता था जिसके बाद राजा अपनी प्रजा के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शन का स्रोत बन जाता था।
(iv) इतिवृत्तों के विवरणों का साथ देने वाले चित्रों ने इन विचारों को इस तरीके से संप्रेषित किया कि उन्होंने देखने वालों के मन-मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव डाला |
(v) सत्रहवीं शताब्दी से मुगल कलाकारों ने बादशाहों को प्रभामंडल के साथ चित्रित करना शुरू किया। ईश्वर के प्रकाश के प्रतीक रूप इन प्रभामंडलों को उन्होंने ईसा और वर्जिन मेरी के यूरोपीय
चित्रों में देखा था।
सुलह-ए-कुल : मुग़ल इतिवृत
अबुल फजल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।
सुलह-ए-कुल के अनुसार मुग़ल साम्राज्य एवं बादशाह और विभिन्न धार्मिक समुदाय
(i) मुगल इतिवृत्त साम्राज्य को हिंदुओं, जैनों, जरतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक भिन्न-भिन्न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
(ii) सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से
उपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था, तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे।
(iii) सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।
(iv) सुलह-ए-कुल का आदर्श राज्य नीतियों के जरिए लागू किया गया। मुगलों के अधीन अभिजात-वर्ग मिश्रित किस्म का था-अर्थात उसमें ईरानी, तूरानी, अफगानी, राजपूत, दक्खनी सभी शामिल थे।
अभिजात वर्ग और दरबारी
मुग़ल अभिजात वर्ग के विशिष्ट लक्षण :
(i) मुगलों के अधीन अभिजात-वर्ग मिश्रित किस्म का था-अर्थात उसमें ईरानी, तूरानी, अफगानी, राजपूत, दक्खनी सभी शामिल थे।
(ii) इस बात का ध्यान रखा कि कोई भी समूह इतना बड़ा न हो जाये कि राज्य के लिए खतरा बन जाये |
(iii) प्रत्येक अधिकारी का पद अथवा मान सब निश्चित था |
(iv) अभिजात सैनिक अभियानों में अपने सैनिक के साथ भाग लेते थे | वे प्रशासनिक कार्य करते थे |
(v) राज्य में ऊंचा स्तर होने के कारण अभीजात वर्ग काफी धनी तथा शक्तिशाली था | उसे समाज में बहुत अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी |
अभिजात वर्गों का मुग़ल बादशाह से संबंध :
(i) अभिजात वर्गों को दिए गए पद और पुरस्कार पूरी तरह से राजा के प्रति उनकी सेवा और निष्ठा पर आधारित थे |
(ii) अभिजात सैनिक अभियानों में अपने सैनिक के साथ भाग लेते थे | वे प्रशासनिक कार्य करते थे |
(iii) मुग़ल दरबार में भी अभिजात वर्गों के लोगों को पद और मान मिला हुआ था | दरबार में किसी की हैसियत इस बात से निर्धारित होती थी कि वह शासक के कितना पास और दूर बैठा है।
(iv) एक ऐसा भी वर्णन मिलता है जो जेसुइट पादरी फादर मान्सेरेट द्वारा उल्लेखित है कि सत्ता के बेधड़क उपयोग से उच्च अभिजातों को रोकने के लिए राजा उन्हें दरबार में बुलाता था और निरंकुश आदेश देता था जैसे कि वे उसके दास हो |
(v) अभिजात-वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक जरिया थी।
(vi) सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के जरिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज प्रस्तुत करता था। अगर याचिकाकर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था।
बादशाह द्वारा प्रजा के चार सत्वों की रक्षा : ये चार सत्व थे -
(i) जीवन (जन) (ii) धन (माल) (iii) सम्मान (नामस) (iv) विश्वास (दीन)
चार सत्वों की रक्षा के बदले में बादशाह की माँग :
(i) वह आज्ञापालन तथा संसाधनों में हिस्से की माँग करता था |
न्याय के विचार का दृश्य निरूपण : न्याय के विचार के लिए अनेक प्रतीकों की रचना दृश्य निरूपण के लिए किया गया -
(i) मुग़ल राजतन्त्र में न्याय को सर्वोतम सद्गुण माना जाता था |
(ii) सर्वाधिक पसंदीदा प्रतीकों में से एक था एक दुसरे के साथ शांतिपूर्ण बैठे शेर और बकरी का दृश्य, इसका उद्देश्य राज्य को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में दिखाना था जहाँ दुर्बल तथा सबल सभी परस्पर सद्भाव से रह सकते थे।
मुग़ल साम्राज्य में राजधानियों की विशेषताएँ :
(i) मुगल साम्राज्य का हृदय-स्थल उसका राजधानी नगर था, जहाँ दरबार लगता था।
(ii) सोलहवीं और सत्रहवी शताब्दियों के दौरान मुग़लों की राजधानियाँ तेजी से स्थान्तरित होती रही |
(iii) बाबर के शासन के चार वर्षों के दौरान राजसी दरबार भिन्न-भिन्न स्थान पर लगाए जाते रहे।
(iv) कई बार सीमाओं की चौकसी के उदेश्य से मुग़ल राजधानियाँ स्थान्तरित होती रही | इसी कारण अकबर ने उत्तर-पश्चिम पर नियंत्रण के लिए लाहौर को राजधानी बनाया |
(v) फतेहपुर सीकरी को मुग़ल राजधानी इसलिए बनाया गया क्योंकि यह अजमेर जाने वाली सीधी सड़क पर स्थित था जहाँ शेख मुइनुदिन चिश्ती के दरगाह था |
(vi) 1648 में दरबार, सेना व राजसी ख़ानदान आगरा से नयी निर्मित शाही राजधानी शाहजहाँनाबाद चले गए। दिल्ली के प्राचीन रिहायशी नगर में शाहजहाँनाबाद एक नयी और शाही आबादी थी।
1570 के दशक में फतेहपुर सीकरी को मुग़ल राजधानी बनाए जाने का कारण :
1570 के दशक में उसने फतेहपुर सीकरी में एक नयी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। इस निर्णय का एक कारण यह था कि सीकरी अजमेर को जाने वाली सीधी सड़क पर स्थित था, जहाँ शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह उस समय तक एक महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल बन चुकी थी।
कोर्निश अभिवादन :
कोर्निश औपचारिक अभिवादन का एक ऐसा तरीका था जिसमें दरबारी दाएँ हाथ की तलहथी को ललाट पर रखकर आगे की ओर सिर झुकाते थे। यह इस बात का प्रतीक था कि कोर्निश करने वाला व्यक्ति अपने इंद्रिय और मन के स्थल को हाथ लगाते हुए झुककर विनम्रता के साथ शाही दरबार में अपने को प्रस्तुत कर रहा है।
मुग़ल शाही दरबार के नियम :
(i) एक बार जब बादशाह सिंहासन पर बैठ जाता था तो किसी को भी अपनी जगह से कहीं और जाने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई अनुमति के बिना दरबार से बाहर जा सकता था |
(ii) दरबारी समाज में सामाजिक नियंत्रण का व्यवहार दरबार में मान्य संबोधन, शिष्टाचार तथा बोलने के ध्यानपूर्वक निर्धारित किए गए नियमों द्वारा होता था।
(iii) शिष्टाचार का जरा सा भी उल्लंघन होने पर ध्यान दिया जाता था और उस व्यक्ति को तुरंत ही दंडित किया जाता था।
(iv) जिस व्यक्ति के सामने ज्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था, उस व्यक्ति की हैसियत
ज्यादा ऊँची मानी जाती थी।
(v) आत्मनिवेदन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडवत लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान पर चार तसलीम तथा जमींबोसी (जमीन चूमना) के तरीके अपनाए गए।
(vi) मुगल बादशाह के समक्ष प्रस्तुत होने वाले राजदूत से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अभिवादन के मान्य रूपों में से एक-या तो बहुत झुककर अथवा जमीन को चूमकर अथवा फारसी रिवाज के मुताबिक छाती के सामने हाथ बाँधकर-तरीके से अभिवादन करेगा।
मुग़ल बादशाह की दिनचर्या :
(i) बादशाह अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ व्यक्तिगत धार्मिक प्रार्थनाओं से करता था और इसके बाद वह पूर्व की ओर मुँह किए एक छोटे छज्जे अर्थात झरोखे में आता था। इसके नीचे लोगों की भीड़ (सैनिक, व्यापारी, शिल्पकार, किसान, बीमार बच्चों के साथ औरतें) बादशाह की एक झलक पाने के लिए इंतजार करती थी।
(ii) अकबर द्वारा शुरू की गई झरोखा दर्शन की प्रथा का उद्देश्य जन विश्वास के रूप में शाही सत्ता की स्वीकृति को और विस्तार देना था।
(iii) झरोखे में एक घंटा बिताने के बाद बादशाह अपनी सरकार के प्राथमिक कार्यों के संचालन हेतु सार्वजनिक सभा भवन (दीवान-ए आम) में आता था।
(iv) वहाँ राज्य के अधिकारी रिपोर्ट प्रस्तुत करते तथा निवेदन करते थे। दो घंटे बाद बादशाह दीवान-ए-ख़ास में निजी सभाएँ और गोपनीय मुद्दों पर चर्चा करता था।
(v) राज्य के वरिष्ठ मंत्री उसके सामने अपनी याचिकाएँ प्रस्तुत करते थे और कर अधिकारी हिसाब का ब्योरा देते थे। कभी-कभी बादशाह उच्च प्रतिष्ठित कलाकारों के कार्यों अथवा वास्तुकारों (मिमार) के द्वारा बनाए गए इमारतों के नक्शों को देखता था।
मुग़ल परिवार
हरम : हरम शब्द का प्रयोग प्राय: मुग़लों की घरेलू दुनिया की ओर संकेत करने के लिए होता है | यह शब्द फारसी से निकला है जिसका तात्पर्य है 'पवित्र स्थान' |
शाही परिवार/मुग़ल परिवार : मुगल परिवार में बादशाह की पत्नियाँ और उपपत्नियाँ, उसके नजदीकी और दूर के रिश्तेदार (माता, सौतेली व उपमाताएँ, बहन, पुत्राी, बहू, चाची-मौसी, बच्चे आदि) व महिला परिचारिकाएँ तथा गुलाम होते थे।
बहुविवाह प्रथा : बहुविवाह प्रथा भारतीय उपमहाद्वीप में विशेषकर शासक वर्गों में व्यापक रूप से प्रचलित थी।
मुग़ल परिवार में पत्नियाँ, उपपत्नियाँ एवं अन्य स्त्रियों की स्थिति :
(i) मुगल परिवार में शाही परिवारों से आने वाली स्त्रिायों (बेगमों) और अन्य स्त्रियों (अगहा), जिनका जन्म कुलीन परिवार में नहीं हुआ था, में अंतर रखा जाता था।
(ii) दहेज (मेहर) के रूप में अच्छा-ख़ासा नकद और बहुमूल्य वस्तुएँ लेने के बाद विवाह करके आई बेगमों को अपने पतियों से स्वाभाविक रूप से अगहाओं की तुलना में अधिक ऊँचा दर्जा और सम्मान मिलता था।
(iii) राजतंत्र से जुड़े महिलाओं के पदानुक्रम में उपत्नियों (अगाचा) की स्थिति सबसे निम्न थी।
(iv) इन सभी को नकद मासिक भत्ता तथा अपने-अपने दर्जे के हिसाब से उपहार मिलते थे। वंश आधारित पारिवारिक ढाँचा पूरी तरह स्थायी नहीं था।
(v) यदि पति की इच्छा हो और उसके पास पहले से ही चार पत्नियाँ न हों तो अगहा और अगाचा भी बेगम की स्थिति पा सकती थीं।
(vi) प्रेम तथा मातृत्व ऐसी स्त्रियों को विधिसम्मत विवाहित पत्नियों के दर्जे तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।
मुग़ल परिवार में गुलामों की स्थिति :
(i) मुगल परिवार में अनेक महिला तथा पुरुष गुलाम होते थे। वे साधारण से साधारण कार्य से लेकर कौशल, निपुणता तथा बुद्धिमता के अलग-अलग कार्यों का संपादन करते थे।
(ii) गुलाम हिजडे़ (ख़्वाजासर) परिवार के अंदर और बाहर के जीवन में रक्षक, नौकर और व्यापार में दिलचस्पी लेने वाली महिलाओं के एजेंट होते थे।
मुग़ल परिवार की रानियों और राजकुमारियों का वित्तीय अधिकार या स्थिति :
(i) नूरजहाँ के बाद मुगल रानियों और राजकुमारियों ने महत्त्वपूर्ण वित्तीय स्रोतों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया।
(ii) शाहजहाँ की पुत्रियों, जहाँआरा और रोशनआरा, को ऊँचे शाही मनसबदारों के समान वार्षिक आय होती थी।
(iii) इसके अतिरिक्त जहाँआरा को सूरत के बंदरगाह नगर जो कि विदेशी व्यापार का एक लाभप्रद वेंफद्र था, से राजस्व प्राप्त होता था।
(iv) संसाधनों पर नियंत्रण ने मुगल परिवार की महत्त्वपूर्ण स्त्रियों को इमारतों व बागों के निर्माण का अधिकार दे दिया।
(v) जहाँआरा ने शाहजहाँ की नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) की कई वास्तुकलात्मक परियोजनाओं में हिस्सा लिया। शाहजहाँनाबाद के हृदय स्थल चाँदनी चौक की रूपरेखा जहाँआरा द्वारा बनाई गई थी।
गुलबदन : गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री, हूमायूँ की बहन तथा अकबर की चाची थी। उसने एक रोचक पुस्तक हुमायूँनामा लिखी जिससे हमें मुग़लों की घरेलू दुनियाँ की एक झलक मिलती है | गुलबदन स्वयं तुर्की तथा फारसी में धाराप्रवाह लिख सकती थी।
मुग़ल साम्राज्य में संचार एवं सुचनायें
अकबरनामा द्वारा मुग़ल इतिहास को दी गयी कल्पनाएँ : अकबरनामा ने मुग़ल इतिहास को निम्लिखित कल्पनाएँ दी है |
(i) मुग़ल क्रिया और सत्ता लगभग पूरी तरह से एकमात्र बादशाह में निहित होती है |
(ii) शेष राज्य को बादशाह के आदेशों का अनुपालन करते हुए प्रदर्शित किया गया है।
(iii) कई भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्थाओं पर आधारित शाही संगठन प्रभावशाली ढंग से कार्य करने में सक्षम हुआ।
(iv) मुग़ल राज्य का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ इसके अधिकारियों का दल था जिसे इतिहासकार सामूहिक रूप से अभिजात-वर्ग भी कहते हैं।
मुग़ल साम्राज्य में संचार एवं सुचनायें :
(i) मुग़ल साम्राज्य में दरबार की बैठकों की तिथि और समय के साथ "उच्च दरबार से समाचार" (अख़बार-ए-दरबार-ए-मुअल्ला) शीर्षक से दरबार की सभी कार्यवाहियों का विवरण तैयार होता था |
(ii) राजाओं और अभिजातों के सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन का इतिहास लिखने के लिए यह सूचनाएँ बहुत उपयोगी होती हैं।
(iii) समाचार वृत्तांत और महत्त्वपूर्ण शासकीय दस्तावेज शाही डाक के जरिए मुगल शासन के अधीन क्षेत्रों में एक छोर से दूसरे छोर तक जाते थे।
(iv) काफी दूर स्थित प्रांतीय राजधानियों से भी वृत्तांत बादशाह को कुछ ही दिनों में मिल जाया
करते थे।
(v) शाही उद्घोषणाओं को अधीनस्थ शासक नक़ल तैयार करवाकर संदेशवाहको के जरिए अपनी टिप्पणियाँ अपने स्वामियों के पास भेज देते थे |
(vi) सार्वजनिक समाचार के लिए पूरा साम्राज्य आश्चर्यजनक रूप से तीव्र सूचना तंत्र से जुड़ा हुआ था।
मुग़ल बादशाहों द्वारा घारण की गई पदवियाँ :
(i) शहंशाह (राजाओं का राजा)
(ii) जहाँगीर (विश्व पर कब्ज़ा करने वाला)
(iii) शाहजहाँ (विश्व का राजा)
आदि अपनाई गई ख़ास उपाधियाँ शामिल थीं।
मुग़ल साम्राज्य का ऑटोमन साम्राज्य से संबध :
(i) ऑटोमन साम्राज्य के साथ मुगलों ने अपने संबंध इस हिसाब से बनाए कि वे ऑटोमन नियंत्रण वाले क्षेत्रों में व्यापारियों व तीर्थयात्रियों के स्वतंत्रा आवागमन को बरकरार रखवा सकें ।
(ii) मक्का और मदीना जैसे ऑटोमन क्षेत्र के साथ अपने संबंधों में मुग़ल बादशाह आमतौर पर धर्म एवं वाणिज्य के मुद्दों को मिलाने की कोशिश करता था |
(iii) लाल सागर के बंदरगाह अदन और मोखा को बहुमूल्य वस्तुओं के निर्यात को प्रोत्साहन देता था और इनकी बिक्री से अर्जित आय को उस इलाके के धर्मस्थलों व फकीरों में दान में बाँट देता था।
अरब भेजे जाने वाले धन से दुरूपयोग होने से औरंगजेब का रोक :
औरंगजेब को जब अरब भेजे जाने वाले धन के दुरुपयोग का पता चला तो उसने भारत में उसके वितरण का समर्थन किया क्योंकि उसका मानना था कि "यह भी वैसा ही ईश्वर का घर है जैसा कि मक्का |"
कंधार सफ़ावियों और मुग़लों के बीच झगड़े की जड़ था :
कंधार सफ़ावियों और मुग़लों के बीच झगड़े की जड़ इसलिए था क्योंकि -
(i) यह किला-नगर आरंभ में हुमायूँ के अधिकार में था जिसे 1595 में अकबर द्वारा पुनः जीत
लिया गया।
(ii) यद्यपि सफावी दरबार ने मुगलों के साथ अपने राजनयिक संबंध बनाए रखे तथापि कंधार पर यह दावा करता रहा।
(iii) 1613 में जहाँगीर ने शाह अब्बास के दरबार में कंधार को मुगल अधिकार में रहने देने की
वकालत करने के लिए एक राजनयिक दूत भेजा लेकिन यह शिष्टमंडल अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ।
(iv) 1622 की शीत ऋतू में एक फारसी सेना ने कंधार पर घेरा डाल दिया। मुगल रक्षक सेना पूरी तरह से तैयार नहीं थी। अतः वह पराजित हुई और उसे किला तथा नगर सफावियों को सौंपने पड़े।
अबुल फजल सुलह-ए-कुल (पूर्ण शांति) के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है। सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।
सुलह-ए-कुल-मुग़ल साम्राज्य के एकीकरण का स्रोत : सुलह-ए-कुल में यूँ तो सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे। यह निम्नलिखित प्रकार से मुग़ल साम्राज्य के एकीकरण का स्रोत था |
(i) मुगल इतिवृत्त साम्राज्य को हिंदुओं, जैनों, जरतुश्तियों और मुसलमानों जैसे अनेक भिन्न-भिन्न नृजातीय और धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
(ii) सभी तरह की शांति और स्थायित्व के स्रोत रूप में बादशाह सभी धार्मिक और नृजातीय समूहों से
उपर होता था, इनके बीच मध्यस्थता करता था, तथा यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे।
(iii) सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी किंतु उसकी एक शर्त थी कि वे राज्य-सत्ता को क्षति नहीं पहुँचाएँगे अथवा आपस में नहीं लड़ेंगे।
(iv) सुलह-ए-कुल का आदर्श राज्य नीतियों के जरिए लागू किया गया। मुगलों के अधीन अभिजात-वर्ग मिश्रित किस्म का था-अर्थात उसमें ईरानी, तूरानी, अफगानी, राजपूत, दक्खनी सभी शामिल थे।
सुलह-ए-कुल के आदर्श को बढ़ावा देने के लिए अकबर द्वारा उठाए गए दो कदम :
(i) अकबर ने 1563 में तीर्थयात्रा कर और 1564 में जजिया कर को समाप्त कर दिया क्योंकि दोनों धार्मिक पक्षपात के प्रतिक थे |
(ii) साम्राज्य में सभी अधिकारीयों को प्रशासन में सुलह-ए-कुल के नियम का पालन करने का निर्देश दिए गए |
भूमि राजस्व - राजस्व का पारिश्रमिक :
अबुल फज़ल ने भूमि राजस्व को राजस्व का पारिश्रमिक बताया - क्योंकि हमने बर्नियर के विवरण में देखा कि मुग़ल साम्राज्य में भूमि का स्वामी सम्राट था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था | इसके विनाशकारी प्रभाव भी था | लेकिन एक भी सरकारी दस्तावेज यह नहीं बाताते है की भूमि का स्वामी राज्य है | अबुल फजल भूमि राजस्व को राजस्व का पारिश्रमिक बताता है | यह राजस्व राजा द्वारा अपनी प्रजा की सुरक्षा के बदले में लिए जाते हैं न कि अपने स्वामित्व वाले भूमि के लगान के रूप में | वास्तव में न तो यह लगान था, न भूमि कर था, बल्कि यह उपज पर लगने वाला कर था |
जेसुइट शिष्टमंडल का एक सदस्य मान्सेरेट द्वारा अकबर के बारे में उसका अनुभव:
अकबर से भेंट करने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए उसकी पहुँच कितनी सुलभ है इसके बारे में अतिशयोक्ति करना बहुत कठिन है। लगभग प्रत्येक दिन वह ऐसा अवसर निकालता है कि कोई भी आम आदमी अथवा अभिजात उससे मिल सके और बातचीत कर सके । उससे जो भी बात करने आता है उन सभी के प्रति कठोर न होकर वह स्वयं को मधुरभाषी और मिलनसार दिखाने का प्रयास करता है। उसे उसकी प्रजा के दिलो-दिमाग से जोड़ने में इस शिष्टाचार और भद्रता का बड़ा असाधारण प्रभाव था।
यूरोप को भारत के बारे में जानकारी:
यूरोप को भारत के बारे में जानकारी निम्न लोगों के भारत यात्रा से मिलती है -
(i) जेसुइट धर्म प्रचारकों की भारत यात्रा,
(ii) अन्य यात्रियों के द्वारा,
(iii) व्यापारियों और राजनयिकों के विवरणों से
यूरोपीय विवरण में मुग़ल दरबार / जेसुइट प्रचारकों का अकबर से नजदीकियाँ :
मुगल दरबार के यूरोपीय विवरणों में जेसुइट वृत्तांत सबसे पुराने वृत्तांत हैं। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत
में भारत तक एक सीधे समुद्री मार्ग की खोज का अनुसरण करते हुए पुर्तगाली व्यापारियों ने तटीय नगरों में व्यापारिक केन्द्रों का जाल स्थापित किया। अकबर ने जेसुइट पादरियों को आमंत्रित करने के लिए एक दूतमंडल गोवा भेजा। पहला जेसुइट शिष्टमंडल फतेहपुर सीकरी के मुगल दरबार में 1580 में पहुँचा और वह वहाँ लगभग दो वर्ष रहा। लाहौर के मुगल दरबार में दो और शिष्टमंडल 1591 और 1595 में भेजे गए। जेसुइट विवरण व्यक्तिगत प्रेक्षणों पर आधारित हैं और वे बादशाह के चरित्र और सोच पर गहरा प्रकाश डालते हैं। सार्वजनिक सभाओं में जेसुइट लोगों को अकबर के सिंहासन के काफी नजदीक स्थान दिया जाता था। वे उसके साथ अभियानों में जाते, उसके बच्चों को शिक्षा देते तथा उसके फुरसत के समय में वे अकसर उसके साथ होते थे। जेसुइट विवरण मुगलकाल के राज्य अधिकारियों और सामान्य जन-जीवन के बारे में फारसी इतिहासों में दी गई सूचना की पुष्टि करते हैं।
ईसाई धर्म के विषय में अकबर की रूचि : अकबर ईसाई धर्म के विषय में जानने को बहुत उत्सुक था | अकबर ने जेसुइट पादरियों को आमंत्रित करने के लिए एक दूतमंडल गोवा भेजा। पहला जेसुइट शिष्टमंडल फतेहपुर सीकरी के मुगल दरबार में 1580 में पहुँचा और वह वहाँ लगभग दो वर्ष रहा।
जेसुइट प्रचारकों का भारत आगमन : पुर्तगाली राजा भी सोसाइटी ऑफ जीसस (जेसुइट) के धर्मप्रचारकों की मदद से ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में रुचि रखता था। सोलहवीं शताब्दी के दौरान भारत आने वाले जेसुइट शिष्टमंडल व्यापार और साम्राज्य निर्माण की इस प्रक्रिया का हिस्सा थे।
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History Part-2 Chapter List
Chapter 5. यात्रियों के नज़रिए
Chapter 6. भक्ति सूफी परंपराएँ
Chapter 7. एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर
Chapter 8. किसान, जमींदार और राज्य
Chapter 9. राजा और विभिन्न वृतांत
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