Chapter 3. बधुत्व, जाति तथा वर्ग History Part-1 class 12 exercise चीनी बौद्ध भिक्षु की भारत यात्रा
Chapter 3. बधुत्व, जाति तथा वर्ग History Part-1 class 12 exercise चीनी बौद्ध भिक्षु की भारत यात्रा ncert book solution in hindi-medium
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ग्रंथ, अभिलेख और साहित्य
लगभग 600 ई.पू. से 600 ईसवीं आर्थिक और राजनितिक जीवन में परिवर्तन :
(i) वन क्षेत्रों में कृषि का विस्तार हुआ |
(ii) शिल्प विशेषज्ञों के एक विशिष्ट सामाजिक समूह का उदय हुआ |
(iii) संपत्ति के असमान वितरण ने सामाजिक विषमताओं को अधिक प्रखर बनाया।
इतिहासकारों द्वारा साहित्य, ग्रन्थ और अभिलेखों का उपयोग :
(i) समकालीन समाज को समझने के लिए |
(ii) समाज में प्रचलित आचार-व्यवहार और रिवाजों को समझने के लिए |
(iii) कुछ ग्रंथ सामाजिक व्यवहार के मानदंड तय करते थे तथा अन्य ग्रंथ समाज का चित्रण करते
थे |
(iv) इतिहासकार इनकी सहायता से समकालीन इतिहास भी लिख सकते थे |
(v) अभिलेखों से हमें समाज के कुछ ऐतिहासिक अभिनायकों की झलक मिलती है।
ग्रंथों के अध्ययन स्रोत को इतिहास में लेने में सावधानियाँ :
प्रत्येक ग्रंथ और अभिलेख किसी समुदाय विशेष के दृष्टिकोण से लिखा जाता था। अतः इन स्रोतों को लेने से पहले कुछ सावधानियाँ भी रखना जरूरी है ये सावधानियाँ निम्नलिखित है :
(i) ये ग्रंथ किसने लिखे,
(ii) क्या लिखा गया और
(iii) किनके लिए इनकी रचना हुई।
(iv) इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है कि इन ग्रंथों की रचना में किस भाषा का प्रयोग हुआ तथा (v) इनका प्रचार-प्रसार किस तरह हुआ।
महाभारत ग्रन्थ का विश्लेषण :
- उपमहाद्वीप के सबसे प्रसिद्द ग्रन्थ महाभारत है |
- इसके वर्त्तमान स्वरुप में 1 लाख से अधिक श्लोक हैं |
- इसमें विभिन्न सामाजिक श्रेणियों व परिस्थितियों का लेखा-जोखा है |
- महाभारत की मुख्य कथा दो परिवारों के बीच हुए युद्ध का चित्राण है।
महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण् :
(i) 1919 में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान वी.एस. सुकथांकर के नेतृत्व में एक अत्यंत महत्त्वाकांक्षी परियोजना की शुरुआत हुई जिसमें अनेक विद्वानों ने मिलकर महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने का जिम्मा उठाया। आरंभ में देश के विभिन्न भागों से विभिन्न लिपियों में लिखी गई महाभारत की संस्कृत पांडुलिपियों को एकत्रित किया गया। उन्होंने उन श्लोकों का चयन किया जो लगभग सभी पांडुलिपियों में पाए गए थे और उनका प्रकाशन 13,000 पृष्ठों में फैले अनेक ग्रंथ खंडों में किया। इस परियोजना को पूरा करने में सैंतालीस वर्ष लगे।
महाभारत ग्रन्थ के समालोचनात्मक संस्करण के दौरान उभरकर आई बातें :
(i) संस्कृत के कई पाठों के अनेक अंशों में समानता थी |
(ii) कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद भी उभर कर सामने आए।
पितृवंशिकता और मातृवंशिकता
परिवार और बंधुता के लिए प्रयुक्त शब्द :
संस्कृत ग्रंथों में ‘कुल’ शब्द का प्रयोग परिवार के लिए और ‘जाति’ का बांधवों के बड़े समूह के लिए होता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी भी कुल के पूर्वज इक्कठे रूप में एक ही वंश के माने जाते हैं।
पितृवंशिकता : पितृवंशिकता का अर्थ है वह वंश परंपरा जो पिता के पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि से चलती है। पितृवंशिकता में पुत्रा पिता की मृत्यु के बाद उनके संसाधनों पर (राजाओं के संदर्भ में सिंहांसन भी) अधिकार जमा सकते थे।
मातृवंशिकता : मातृवंशिकता शब्द का इस्तेमाल हम तब करते हैं जहाँ वंश परंपरा माँ से जुड़ी होती है।
सबंधी या जातीय समूह :
एक ही परिवार के लोग भोजन और अन्य संसाधनों का आपस में मिल-बाँटकर इस्तेमाल करते हैं, एक साथ रहते और काम करते हैं और अनुष्ठानों को साथ ही संपादित करते हैं। परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते हैं जिन्हें हम सबंधी कहते हैं। तकनीकी भाषा का इस्तेमाल करें तो हम संबंधियों को जाति समूह कह सकते हैं।
अंतर्विवाह : अंतर्विवाह में वैवाहिक संबंध् समूह के मध्य ही होते हैं। यह समूह एक गोत्र कुल अथवा एक जाति या फिर एक ही स्थान पर बसने वालों का हो सकता है।
बहिर्विवाह : बहिर्विवाह गोत्र से बाहर विवाह करने को कहते हैं।
बहुपत्नी प्रथा : बहुपत्नी प्रथा एक पुरुष की अनेक पत्नियाँ होने की सामाजिक परिपाटी है।
बहुपति प्रथा : बहुपति प्रथा एक स्त्री के अनेक पति होने की पद्धति है।
पितृवंश को आगे बढ़ाना :
पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण थे वहाँ इस व्यवस्था में पुत्रियों को अलग तरह से देखा जाता था। पैतृक संसाधनों पर उनका कोई अधिकार नहीं था। अपने गोत्र से बाहर उनका विवाह कर देना ही अपेक्षित था। इस प्रथा को बहिर्विवाह पद्धति कहते हैं और इसका तात्पर्य यह था कि ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों की कम उम्र की कन्याओं और स्त्रिायों का जीवन बहुत सावधनी से नियमित किया जाता था जिससे ‘उचित’ समय और ‘उचित’ व्यक्ति से उनका विवाह किया जा सके | इसका प्रभाव यह हुआ कि कन्यादान अर्थात् विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया।
नए नगरों के उदभव से उत्पन्न जटिलताएं :
(i) सामाजिक जीवन जटिल हो गया |
(ii) नए नगरों में निकट और दूर से आकर लोग मिलते थे और वस्तुओं की खरीद फरोख्त के साथ-साथ नगरीय परिवेश में विचारों का भी आदान प्रदान होता था |
(iii) संभवतः इस वजह से आरंभिक विश्वासों और व्यवहारों पर प्रश्न चिन्ह लगाए गए ।
(iv) इस चुनौती के जवाब में ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार की |
मनुस्मृति की रचना
धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र की रचना : लगभग 500 ई.पू. से इन मानदंडों का संकलन धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया | ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार कीं। ब्राह्मणों को इन आचार संहिताओं का विशेष पालन करना होता था किन्तु बाकी समाज को भी इसका अनुसरण करना पड़ता था। इसमें सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी जिसका संकलन लगभग 200 ई.पू. से 200 ईसवी के बीच हुआ।
अचार संहिताओं का सार्वभौमिक रूप से पालन नहीं होने के कारण :
(i) वास्तविक सामाजिक संबंध् कहीं अधिक जटिल थे।
(ii) उपमहाद्वीप में फैली क्षेत्रीय विभिन्नता और
(iii) संचार की बाधओं की वजह से भी इनका का प्रभाव सार्वभौमिक कदापि नहीं था।
धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र विवाह के आठ प्रकारों को अपनी स्वीकृति देते हैं | इनमें से पहले चार 'उत्तम' माने जाते थे और बाकियों को निन्दित माना जाता था | संभवत: ये विवाह पद्धतियाँ उन लोगों में प्रचलित थी जो शास्त्रों के नियमों को अस्वीकार थे |
धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र के अनुसार विवाह के आठ नियम :
धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र विवाह के आठ प्रकारों को अपनी स्वीकृति देते हैं | इनमें से पहले चार 'उत्तम' माने जाते थे और बाकियों को निन्दित माना गया | सभवत: ये विवाह पद्धतियाँ उन लोगों में प्रचलित थी जो विद्वानों/ऋषियों के बनाये नियमों को स्वीकार करते थे |
गोत्र पद्धति : गोत्र पद्धति एक ऐसी पद्धति है जो 1000 ई.पू. के बाद प्रचालन में आई जिसमें आर्य लोगों को गोत्रों में वर्गीकृत किया गया | प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि (जैसे- कश्यप, सान्डिल्य, वशिष्ठ, अंगीरा, भृगु इत्यादि ) के नाम पर होता था | उस गोत्र के सदस्य उस ऋषि के वंशज माने जाते थे |
गोत्र के दो नियम :
(i) विवाह के पश्चात् स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था |
(ii) एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह संबंध नहीं रख सकते थे |
बहुपत्नी प्रथा और एक ही गोत्र में विवाह के साक्ष्य :
कुछ सातवाहन राजा बहुपत्नी प्रथा (अर्थात् एक से अधिक पत्नी) को मानने वाले थे। सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों के नामों का विश्लेषण इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि उनके नाम गौतम तथा वसिष्ठ गोत्रों से उद्भूत थे जो उनके पिता के गोत्र थे। इससे प्रतीत होता है कि विवाह के बाद भी अपने पति कुल के गोत्रा को ग्रहण करने की अपेक्षा, जैसा ब्राह्मणीय व्यवस्था में अपेक्षित था, उन्होंने पिता का गोत्र नाम ही कायम रखा। यह भी पता चलता है कि कुछ रानियाँ एक ही गोत्रासे थीं। यह तथ्य बहिर्विवाह पद्धति के नियमों के विरुद्ध था ।
अक्षत्रिय राजा का प्रमाण :
शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय राजा हो सकते थे। किन्तु अनेक महत्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से भी हुई थी। मौर्य वंश जिसने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया, के उद्भव पर गर्मजोशी से बहस होती रही है। बाद के बौद्ध ग्रंथों में यह इंगित किया गया है कि वे क्ष त्रिय थे किन्तु कुछ शास्त्र उन्हें 'निम्न’ कुल का मानते हैं। शुंग और कण्व जो मौर्यों के उत्तराधिकारी थे, ब्राह्मण थे, राजनीतिक सत्ता का उपभोग हर वह व्यक्ति कर सकता था जो समर्थन और संसाधन जुटा सके। राजत्व क्षत्रिय कुल में जन्म लेने पर शायद ही निर्भर करता था। एक और उदाहरण है शक शासक राजा रूद्र दमन का जिन्हें मलेच्छ, बर्बर अथवा अन्यदेशीय माना जाता था | दूसरा उदाहरण है सातवाहन शासक का जो स्वयं को ब्राह्मण वर्ण बताते थे जबकि शास्त्रों के अनुसार राजा का क्षत्रिय होना चाहिए था |
शास्त्रों के अनुसार जाति एवं वर्ण : कुछ इतिहासकार जाति को जन्म के आधार पर बना मानते है जबकि जाति का बहुत से ग्रन्थ या शास्त्रों में वर्णन कर्म के आधार पर बताया गया है | मनुष्य के कर्म के आधार पर ही जाति व्यवस्था बनाया गया है | जन्म से कोई जाति नहीं होती है |
वर्ण : शास्त्रों के अनुसार चार वर्ण है |
(i) ब्राह्मण (ii) क्षत्रिय (iii) वैश्य (iv) शुद्र
जातियाँ : इन चार वर्णों के आधीन अनेक जातियाँ थी जो उनके कर्मों के आधार पर था जैसे - जंगल में रहने वाले शिकारी वर्ग निषाद या फिर व्यवसायी वर्ग सुवर्णकार आदि |
मनुस्मृति के अनुसार चांडालों का कार्य (कर्तव्य):
उन्हें गाँव के बाहर रहना होता था। वे फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे, मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे। रात्रि में वे गाँव और नगरों में चल-फिर नहीं सकते थे। संबंधियों से विहीन मृतकों की उन्हें अंत्येष्टि करनी पड़ती थी तथा वधिक के रूप में भी कार्य करना होता था।
चीनी बौद्ध भिक्षु की भारत यात्रा
चीनी बौद्ध भिक्षु की भारत यात्रा : लगभग पाँचवी शताब्दी ईसवी चीनी बौद्ध भिक्षु फा-शिएन भारत आया था | उसने अपनी यात्रा वृतांत में वर्णन किया है कि अस्पृश्यों को सड़क पर चलते हुए करताल बजाकर अपने होने की सूचना देनी पड़ती थी जिससे अन्य जन उन्हें देखने के दोष से बच जाएँ। एक और चीनी तीर्थयात्री (श्वैन-त्सांग लगभग सातवीं शताब्दी ईसवी) कहता है कि वधिक और सफाई करने वालों को नगर से बाहर रहना पड़ता था।
स्त्रीधन : स्त्री को विवाह के समय जो उपहार मिलते थे, उनपर उसी का अधिकार होता था | उसे स्त्रीधन कहा जाता था | इसे उसकी संतान विरासत के रूप के प्राप्त कर सकती थी | इस इसके पति का कोई अधिकार नहीं होता था |
सामाजिक अभिनायक और उनका समाज में स्थान :
भारतीय उपमहाद्वीप में दास, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, शिकारी, मछुआरे, पशुपालक, किसान, ग्राममुखिया, शिल्पकार, वणिक और राजा सभी का यहाँ विभिन्न हिस्सों में सामाजिक अभिनायक के रूप में उदभव हुआ |
समाज में उनका स्थान : समाज में उनका स्थान इस बात पर निर्भर करता था कि आर्थिक संसाधनों पर उनका कितना नियंत्रण है |
पैतृक संसाधनों पर नियंत्रण : मनुस्मृति के अनुसार पैतृक जायदाद का माता-पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्रों में समान रूप से बँटवारा किया जाना चाहिए किन्तु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था। स्त्रिायाँ इस पैतृक संसाधन में हिस्सेदारी की माँग नहीं कर सकती थीं।
मनुस्मृति के अनुसार धन अर्जित करने के तरीके :
(1) विरासत (2) खोज (3) खरीद (4) विजय प्राप्त करके (5) निवेश (6) कार्य द्वारा (7) सज्जनों द्वारा दी गई भेंट स्वीकार करके |
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History Part-1 Chapter List
Chapter 1. ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ
Chapter 2. राजा, किसान और नगर
Chapter 3. बंधुत्व, जाति तथा वर्ग
Chapter 4. विचारक, विश्वास और ईमारतें
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