Chapter 2. राजा, किसान और नगर History Part-1 class 12 exercise Assignment :
Chapter 2. राजा, किसान और नगर History Part-1 class 12 exercise Assignment : ncert book solution in hindi-medium
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भारतीय इतिहास का आरंभिक काल
हड़प्पा सभ्यता के डेढ़ हजार वर्षों के बाद : इस अवधि के दौरान उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में कई प्रकार के विकास कार्य हुए :
(i) ऋग्वेद का लेखन कार्य
(ii) कृषक बस्तियों का उदय
(iii) अंतिम संस्कार के नए तरीके
(iii) नए नगरों का उदय
ऋग्वेद का लेखन : हड़प्पा सभ्यता के डेढ़ हजार वर्षों के बाद सिन्धु नदी और इसकी उपनदियों के किनारे रहने वाले लोगों द्वारा ऋग्वेद का लेखन किया गया |
हड़प्पा सभ्यता के डेढ़ हजार वर्षों के बाद के काल के इतिहास को जानने के मुख्य स्रोत :
(i) अभिलेख
(ii) ग्रन्थ
(iii) सिक्के
(iv) चित्र इत्यादि |
जेम्स प्रिंसेप : जेम्स प्रिंसेप के द्वारा 1830 के दशक में ब्राम्ही और खरोष्ठी लिपि का अर्थ निकला गया | जिनसे राजा असोक के अभिलेखों और सिक्कों का पता चला |
इससे निम्न बातों का पता चला :
(i) अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी, यानी मनोहर मुखाकृति वाले राजा का नाम लिखा है।
(ii) कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम असोक भी लिखा है |
(iii) अशोक के अभिलेख मुख्यत: ब्राम्ही तथा खरोष्ठी लिपियों में लिखा गया गया है |
जेम्स प्रिंसेप के शोध के परिणाम :
(i) आरंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को नयी दिशा मिली |
(ii) भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखे अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग किया।
(iii) बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों तक उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास का एक सामान्य चित्र तैयार हो गया।
आहत सिक्के :
चाँदी या ताम्बे को आहत करके (खोद कर अथवा पीटकर) बनाए गए सिक्कों को आहत सिक्का कहा जाता है | इन सिक्कों का प्रचलन छठी शताब्दी ई. पू. के समय था |
आहत सिक्कों की विशेषताएँ :
(i) इन्हें राजाओं अथवा व्यापारी समूहों ने जारी किए |
(ii) ये सिक्के चाँदी और ताँबे के बने हुए थे |
(iii) इन सिक्कों के प्रचलन से विनिमय आसान हो गया |
(iv) चाँदी या ताँबे के चादर पर प्रतिक चिन्हों को आहत कर बनाए गए थे |
(v) मौर्य काल में इस प्रकार के सिक्कों का प्रचलन था |
सोने के सिक्कों का प्रचलन :
सोने के सिक्के सबसे पहले प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण राजाओं ने जारी किए थे। इनके आकार और वजन तत्कालीन रोमन सम्राटों तथा ईरान के पार्थियन शासकों द्वारा जारी सिक्कों के बिलकुल समान थे।
सोने के सिक्कों की सिक्कों की प्राप्ति :
उत्तर और मध्य भारत के कई पुरास्थलों पर ऐसे सिक्के मिले हैं। सोने के सिक्कों के व्यापक प्रयोग से संकेत मिलता है कि बहुमूल्य वस्तुओं और भारी मात्रा में वस्तुओं का विनिमय किया जाता था।
दक्षिण भारत में रोमन सिक्कों के प्रमाण :
दक्षिण भारत के अनेक पुरास्थलों से बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिले हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि व्यापारिक तंत्र राजनीतिक सीमाओं से बँधा नहीं था | ये सिक्के दक्षिण भारत के व्यापारियों द्वारा रोमन साम्राज्य से व्यापार के अंतर्गत प्राप्त हुए थे |
यौधेयों द्वारा जारी ताम्बे के सिक्के :
पंजाब और हरियाणा जैसे क्षेत्रों के यौधेय (प्रथम शताब्दी ई.) कबायली गणराज्यों ने भी सिक्के जारी किए थे। पुराविदों को यौधेय शासकों द्वारा जारी ताँबे के सिक्के हजारों की संख्या में मिले हैं जिनसे
यौधेयों की व्यापार में रुचि और सहभागिता परिलक्षित होती है।
मुद्राशास्त्र : मुद्राशास्त्र सिक्कों का अध्ययन है। इसके साथ ही उन पर पाए जाने वाले चित्र, लिपि
आदि तथा उनकी धातुओं का विश्लेषण और जिन संदर्भों में इन सिक्के को पाया गया है, उनका अध्ययन भी मुद्राशास्त्र के अंतर्गत आता है।
छठी शताब्दी ई. से सोने के सिक्के कम मिलने का कारण :
(i) कुछ इतिहासकारों का मानना था कि उस काल में कुछ आर्थिक संकट पैदा हो गया था |
(ii) कुछ का कहना है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में कमी आई जिससे उन
राज्यों, समुदायों और क्षेत्रों की संपन्नता पर असर पड़ा जिन्हें दूरवर्ती व्यापार से लाभ मिलता था।
(iii) इस काल में नए नगरों और व्यापार के नवीन तंत्रों का उदय होने लगा था।
(iv) सिक्के इसलिए कम मिलते हैं क्योंकि वे प्रचलन में थे और उनका किसी ने संग्रह करके नहीं रखा था।
अभिलेख : अभिलेख उन्हें कहते हैं जो पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर
खुदे होते हैं।
अभिलेखों की विशेषताएँ/उपयोग:
(i) अभिलेखों में उन लोगों की उपलब्ध्यिाँ, क्रियाकलाप या विचार लिखे जाते हैं जो उन्हें बनवाते हैं।
(ii) इनमें राजाओं के क्रियाकलाप तथा महिलाओं और पुरुषों द्वारा धखमक संस्थाओं को दिए गए दान का ब्योरा होता है।
(iii) अभिलेख एक प्रकार से स्थायी प्रमाण होते हैं।
(iv) कई अभिलेखों में इनके निर्माण की तिथि भी खुदी होती है जिन पर तिथि नहीं मिलती है, उनका काल निर्धारण आमतौर पर पुरालिपि अथवा लेखन शैली के आधर पर काफी सुस्पष्टता
से किया जा सकता है।
जनपद : जनपद का अर्थ एक ऐसा भूखंड है जहाँ कोई जन (लोग, कुल या जनजाति) अपना पाँव रखता है अथवा बस जाता है। इस शब्द का प्रयोग प्राकृत व संस्कृत दोनों में मिलता है |
छठी शताब्दी ई.पू. एक परिवर्तनकारी काल माना जाता है क्योंकि:
(i) इस काल को प्रायः आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों के विकास के साथ जोड़ा जाता है।
(ii) इसी काल में बौद्ध तथा जैन सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ।
(iii) बौद्ध और जैन धर्म के आरंभिक ग्रंथों में महाजनपद नाम से सोलह राज्यों का उल्लेख मिलता है। (iv) इनमें से वज्जि, मगध्, कोशल, कुरु, पांचाल, गांधर और अवन्ति जैसे नाम प्रमुख हैं।
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षण :
(i) अधिकांश महाजनपदों पर एक राजा का शासन होता था | परन्तु गण और संघ के नाम से विख्यात राज्यों पर कई लोगों का सामूहिक शासन होता था | इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था |
(ii) प्रत्येक महाजनपद की एक राजधनी होती थी जिसे प्रायः किले से घेरा जाता था। किलेबंद राजधनियों के रख-रखाव और प्रारंभी सेनाओं और नौकरशाही के लिए भारी आर्थिक स्रोत की आवश्यकता होती थी।
(iii) संस्कृत में ब्राम्हणों ने धर्मशास्त्र की रचना की | इनमें शासक सहित अन्य के लिए नियमों का निर्धारण किया गया और यह अपेक्षा की जाती थी कि शासक क्षत्रिय वर्ण से ही होंगे |
(iv) शासकों का काम किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूलना माना जाता था।
(v) महाजनपदों में संपत्ति जुटाने का एक वैध् उपाय पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करके धन इकठठा करना भी माना जाता था।
(vi) राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तंत्र तैयार कर लिए। बाकी राज्य अब भी सहायक-सेना पर निर्भर थे जिन्हें प्रायः कृषक वर्ग से नियुक्त किया जाता था।
मगध महाजनपद : छठी से चौथी शताब्दी ई० पू० में मगध सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया | इसके शक्तिशाली होने के कई कारण हैं |
आधुनिक इतिहासकार के अनुसार इसके शक्तिशाली होने के कारण :
(i) मगध् क्षेत्र में खेती की उपज खास तौर पर अच्छी होती थी।
(ii) लोहे की खदानें (आधुनिक झारखंड में) भी आसानी से उपलब्ध् थीं जिससे उपकरण और हथियार बनाना सरल होता था।
(iii) जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध् थे जो सेना क्र एक महत्वपूर्ण अंग थे।
(iv) साथ ही गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता व सुलभ होता था।
आरंभिक जैन और बौद्ध लेखकों के अनुसार मगध् की महत्ता का कारण :
(i) विभिन्न शासकों की नीतियों
(ii) इन लेखकों के अनुसार बिंबिसार, अजातसत्तु और महापद्मनंद जैसे प्रसिद्ध राजा अत्यंत महत्त्वाकांक्षी शासक थे, और इनके मंत्री उनकी नीतियाँ लागू करते थे।
राजगाह (आधुनिक राजगीर) : यह मगध की आरंभिक राजधानी थी | यह पहाड़ियों के बीच बसा राजगाह एक किलेबंद शहर था | बाद में चौथी शताब्दी ई० पू० पाटलिपुत्र को मगध की राजधानी बनाया गया | जिसे अब पटना कहा गया | जिसकी गंगा के रास्ते आवागमन के मार्ग पर महत्वपूर्ण अवस्थिति थी |
अशोक की अभिलेखों की विशेषताएँ :
(i) अशोक के अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं जबकि पश्चिमोत्तर से मिले अभिलेख अरामेइक और यूनानी भाषा में हैं।
(ii) प्राकृत के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए थे जबकि पश्चिमोत्तर के कुछ अभिलेख खरोष्ठी में लिखे गए थे।
- अरामेइक और यूनानी लिपियों का प्रयोग आफगानिस्तान में मिले अभिलेखों में किया गया था।
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मौर्यवंश और चन्द्रगुप्त मौर्य
मौर्यवंश की स्थापना : मौर्यवंश की स्थापना आज से लगभग 321 ई०. पू० मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य के द्वरा किया गया | मौर्यवंश का शासन पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था |
मौर्यवंश के बारे में जानकारी के स्रोत :
(i) पुरातात्विक प्रमाण विशेषतया मूर्तिकला |
(ii) समकालीन रचनाएँ : चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए यूनानी राजदूत मेगस्थनीश द्वारा लिखा गया विवरण।
(iii) अर्थशास्त्र : अर्थशास्त्र एक महत्वपूर्ण स्रोत है क्योंकि चन्द्रगुप्त के मंत्री कौटिल्य जिन्हें चाणक्य के नाम से जाना जाता है की एक अद्भुत रचना है |
(iv) मौर्य शासकों का उल्लेख परवर्ती जैन, बौद्ध और पौराणिक ग्रंथों तथा संस्कृत वाड्मय में भी मिलता है।
(v) पत्थरों और स्तंभों पर मिले अशोक के अभिलेख |
अर्थशास्त्र और उसकी विशेषताएँ :
कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजनीति से संबंधित एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है | इसकी रचना कौटिल्य ने की थी जो एक बहुत बड़ा विद्वान और चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधानमंत्री था उसने इस ग्रन्थ के प्रशासन में सिंद्धांतो का वर्णन किया है | इस ग्रंथ का भारतीय इतिहास में बहुत महत्व था | यह ग्रंथ मौर्येकाल का सुंदर चित्र प्रस्तुत करता है | इससे हमें चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबंध तथा उसके चारित्रिक गुणों की जानकारी मिलती है | यह ग्रंथ मौर्येकाल के समाज पर भी प्रकाश डालता है | सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें दिए गए शासन के सिद्धांतों की झलक आज के भारतीय शासन में देखी जा सकती है |
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में कुछ महत्वपूर्ण गणराज्य निम्नलिखित थे :
(1) कुशिनारा के मल्ल
(2) पावा के मल्ल
(3) कपिलवस्तु के शाक्य
(4) रामग्राम के कोलिय
(5) पिप्पलिवन के मोरिय
(6) अल्कप्प के बुलि
(7) केसपुत्त के कलाम
(8) सुमसुमारगिरी के भम्ग
(9) वैशाली के लिच्छवी |
मौर्य साम्राज्य के राजनितिक या प्रशासनिक केंद्र :
मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केंद्र थे - जिसका स्रोत अशोक के अभिलेख है जिसमें इनका उल्लेख हैं |
(i) राजधनी पाटलिपुत्र और चार प्रांतीय केंद्र |
(ii) तक्षशिला,
(ii) उज्जयिनी,
(iii) तोसलि और
(iv) सुवर्णगिरि।
मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य साम्राज्य का प्रशासन व्यवस्था नियंत्रण :
मौर्य साम्राज्य में सैनिक गतिविधियों के संचालन का काम एक समिति और छ: उपसमितियाँ किया करती थी | ये समितियाँ निम्न प्रकार से काम करती थी |
(i) एक का काम नौसेना का संचालन करना था,
(ii) दूसरी यातायात और खान-पान का संचालन करती थी |
(iii) तीसरी का काम पैदल सैनिकों का संचालन |
(iv) चौथी का अश्वारोहियों, पाँचवीं का रथारोहियों तथा छठी का काम हाथियों का संचालन करना था।
(v) दूसरी उपसमिति का दायित्व विभिन्न प्रकार का था: उपकरणों के ढोने के लिए बैलगाडि़यों की
व्यवस्था, सैनिकों के लिए भोजन और जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था करना तथा सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों और शिल्पकारों की नियुक्ति करना।
मौर्यकाल में कृषि उपज/आय में वृद्धि के कारण :
(i) लोहे के फाल वाले हल की वजह से फसलों की उपज में वृद्धि हुई |
(ii) उपज बढ़ाने का एक और तरीका कुओं, तालाबों और कहीं-कहीं नहरों के माध्यम से सिंचाई करना था।
धम्म के प्रमुख सिद्धांत : धम्म के सिद्धांत बहुत ही साधारण और सार्वभौमिक थे |
(i) बड़ों के प्रति आदर
(ii) सन्यासियों तथा ब्राम्हणों के प्रति उदारता
(iii) अपने सेवकों तथा दासों के प्रति उदार व्यवहार
(iv) दूसरों के धर्मों और परम्पराओं का आदर
धम्म महामात्रों की नियुक्ति :
असोक ने अपने साम्राज्य को अखंड बनाए रखने का प्रयास किया। ऐसा उन्होंने धम्म के प्रचार द्वारा भी किया। असोक के अनुसार धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्त नाम से विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई।
अशोक बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं के लिए प्रेरणा स्रोत थे :
अशोक अन्य राजाओं की अपेक्षा एक बहुत शक्तिशाली और परिश्रमी शासक थे | साथ थी वे बाद के उन राजाओं की अपेक्षा विनीत भी थे जो अपने नाम के साथ बड़ी-बड़ी उपाधियाँ जोड़ते थे | चूँकि अशोक को भारतवर्ष का सबसे शक्तिशाली सम्राट माना जाता है जिस पर सभी भारतीय गर्व करते हैं यही कारण है कि अशोक राष्ट्रवादी नेताओं के लिए प्रेरणा स्रोत थे |
मौर्य साम्राज्य के महत्व को कम/धुंधली करने वाली बातें :
(i) यह साम्राज्य मात्र डेढ़ सौ साल तक ही चल पाया जिसे उपमहाद्वीप के इस लंबे इतिहास में बहुत बड़ा काल नहीं माना जा सकता।
(ii) मौर्य साम्राज्य उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में नहीं फ़ैल पाया था। यहाँ तक कि साम्राज्य की सीमा के अंतर्गत भी नियंत्रण एकसमान नहीं था।
(iii) दूसरी शताब्दी ई.पू. आते-आते उपमहाद्वीप के कई भागों में नए-नए शासक और रजवाड़े स्थापित होने लगे।
यूनानी स्रोतों के अनुसार मौर्य सम्राट के पास सेना :
यूनानी स्रोतों के अनुसार, मौर्य सम्राट के पास छः लाख पैदल सैनिक, तीस हजार घुड़सवार तथा नौ हजार हाथी थे।
असोक द्वारा अपनाई गई उपाधियां :
(i) देवानांपिय अर्थात् देवताओं का प्रिय और
(ii) ‘पियदस्सी’ यानी ‘देखने में सुन्दर’।
अभिलेखों से प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्य :
(i) इन अभिलेखों का परीक्षण करने के बाद अभिलेखशास्त्रिायों ने पता लगाया कि उनके विषय, शैली, भाषा और पुरालिपिविज्ञान सबमें समानता है, अतः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन अभिलेखों को एक ही शासक ने बनवाया था।
अशोक के अभिलेखों का भारतीय इतिहास में महत्व : भातीय इतिहास में अशोक में अभिलेखों का बहुत ही महत्त्व है |
(i) ये हमें उस काल के इतिहास के साथ साथ भौगोलिक स्थिति, प्रशासनिक व्यवस्था और लोगों के रहन सहन के बारे में जानकारी देते है |
(ii) इन शिलालेखों से हमें अशोक के समय प्रचलित बौद्ध एवं जैन धर्म के बारे में जानकारी मिलती है |
(iii) शिलालेख अशोक के उच्च चरित्र और उसके द्वारा किए गए प्रजा के भलाई के कार्य का वर्णन करते है |
(iv) ये शिलालेख मौर्यकालीन कला के अद्भुत नमूने का वर्णन करते हैं |
अशोक के शिलालेख और उनके स्थान :
(i) सिद्धपुर : मैसूर राज्य के चीतल दुर्ग में
(ii) ब्रम्हागिरी : मैसूर राज्य में
(iii) मास्की : हैदराबाद के निकट एक स्थान
(iv) सहसाराम : यह स्थान शाहाबाद बिहार में है |
प्रशस्तियाँ
दानात्मक अभिलेख :
दानात्मक अभिलेख दूसरी शताब्दी ई. के छोटे-छोटे अभिलेख हैं जो विभिन्न नगरों से मिले हैं | इनमें धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का विवरण है |
दानात्मक अभिलेखों की विशेषताएँ :
(i) इनमें धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का विवरण है |
(ii) इनमें दान दिए गए व्यक्ति के साथ-साथ उसके व्यवसाय का भी उल्लेख किया गया है |
(iii) इनमें नगरों में रहने वाले धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ाई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार, अधिकारी, धर्मिक गुरु, व्यापारी और राजाओं के बारे में विवरण लिखे होते हैं।
श्रेणी : कभी-कभी उत्पादकों और व्यापारियों के संघ का भी उल्लेख मिलता है जिन्हें श्रेणी कहा गया है। ये श्रेणियाँ संभवतः पहले कच्चे माल को खरीदती थीं फिर उनसे सामान तैयार कर बाजार में बेच देती थीं।
अग्रहार का अर्थ : अग्रहार दान में दिए गए भूभागों को कहते थे | ब्राहमणों से भूमिकर अथवा कोई कर नहीं लिया जाता था | साथ-ही साथ ब्राह्मणों को अन्य स्थानीय लोगों से कर वसूलने का अधिकार प्राप्त था |
गहपति :
गहपति घर का मुखिया होता था और घर में रहने वाली महिलाओं, बच्चों, नौकरों और दासों पर नियंत्रण करता था। घर से जुड़े भूमि, जानवर या अन्य सभी वस्तुओं का वह मालिक होता था। कभी-कभी इस शब्द का प्रयोग नगरों में रहने वाले संभ्रांत व्यक्तियों और व्यापारियों के लिए भी होता था।
प्रशस्ति : कवियों द्वारा अपने राजा या स्वामी की प्रशंशा में लिखी गई कविताओं या लेखों को प्रशस्ति कहा जाता है |
प्रशस्तियाँ विश्वसनीय नहीं होती :
प्रशस्तियों को इतिहासकार तथ्यात्मक विवरण की अपेक्षा काव्यात्मक ग्रन्थ मानते है क्योंकि कवि इसे अपने राजा की प्रशंशा में लिखता है |
प्रयाग प्रशस्ति : इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख के नाम से प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति की रचना हरिषेण जो स्वयं गुप्त सम्राटों के संभवतः सबसे शक्तिशाली सम्राट समुद्रगुप्त के राजकवि थे, ने संस्कृत में की थी।
बाणभट्ट : बाणभट्ट कनौज के शासक हर्षवर्धन के राजकवि थे | जिन्होंने ने हर्षवर्धन की जीवनी को संस्कृत में हर्षरचित ग्रन्थ में वर्णन किया है |
प्रभावती : प्रभावती गुप्त आरंभिक भारत के एक सबसे महत्वपूर्ण शासक चंद्रगुप्त द्वितीय (लगभग 375-415 ई.पू.) की पुत्राी थी। उसका विवाह दक्कन पठार के वाकाटक परिवार में हुआ था जो एक महत्वपूर्ण शासक वंश था।
उतरी कृष्ण मार्जित पात्र : कुछ पूरा स्थलों से विभिन्न प्रकार के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। इनमें
उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। इन्हें उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र कहा जाता है।
पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी : यह एक यूनानी समुद्र यात्री द्वारा रचित एक पुस्तक है जिसमें समुद्री यात्रा का वृतांत है |
रोमन साम्राज्य से व्यापार :
रोमन साम्राज्य में काली मिर्च, जैसे मसालों तथा कपड़ों व जड़ी-बूटियों की भारी माँग थी। इन सभी वस्तुओं को अरब सागर के रास्ते भूमध्य क्षेत्र तक पहुँचाया जाता था।
गुजरात की सुदर्शन झील :
सुदर्शन झील एक कृत्रिम जलाशय था। हमें इसका ज्ञान लगभग दूसरी शताब्दी ई. के संस्कृत के एक पाषाण अभिलेख से होता है। इस अभिलेख को शक शासक रुद्रदमन की उपलब्धियों का उल्लेख करने के लिए बनवाया गया था।
सुदर्शन झील का निर्माण :
जलद्वारों और तटबंधें वाली इस झील का निर्माण मौर्य काल में एक स्थानीय राज्यपाल द्वारा किया गया था। लेकिन एक भीषण तूपफान के कारण इसके तटबंध् टूट गए और सारा पानी बह गया।
सुदर्शन झील का मरम्मत :
शासक रुद्रदमन ने इस झील की मरम्मत अपने खर्चे से करवाई थी, और इसके लिए अपनी प्रजा से कर भी नहीं लिया था। बाद में गुप्त वंश के एक शासक ने एक बार फिर इस झील की मरम्मत करवाई थी।
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History Part-1 Chapter List
Chapter 1. ईंटें, मनके तथा अस्थियाँ
Chapter 2. राजा, किसान और नगर
Chapter 3. बंधुत्व, जाति तथा वर्ग
Chapter 4. विचारक, विश्वास और ईमारतें
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