Chapter 2. भारतीय अर्थव्यवस्था 1950 - 1990 Economics-II class 12 exercise भारत का विदेशी व्यपार
Chapter 2. भारतीय अर्थव्यवस्था 1950 - 1990 Economics-II class 12 exercise भारत का विदेशी व्यपार ncert book solution in hindi-medium
NCERT Books Subjects for class 12th Hindi Medium
पंचवर्षीय योजनाएँ एवं उनका लक्ष्य
पंचवर्षीय योजनाएँ एवं उनका लक्ष्य :
पंचवर्षीय योजनाएँ (Five Year Plans) : प्रत्येक पाँच वर्ष के लिए सरकार विकास कार्यों को तय समय सीमा में पूरा करने लिए सामूहिक रूप से कुछ योजनाएँ तैयार करती है जिसमें इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कार्यक्रम एवं नीतियों का निर्धारण किया जाता है | चूँकि ये योजनाएँ पाँच वर्ष के लिए होती है इसलिए इन्हें पंचवर्षीय योजनाएँ कहते है |
आर्थिक नियोजन (Economic Planning): आर्थिक नियोजन एक प्रक्रिया है जिसमें केन्द्रीय संस्थागत अधिकारी देश की आवश्यकताओं और साधनों को ध्यान में रखते हुए कुछ आवश्यक लक्ष्यों के समूह को निर्धारित करता है और एक निश्चित समयावधि में आर्थिक संवृद्धि तथा विकास के निश्चित लक्ष्यों को प्राप्त करने की कोशिश करता है |
योजना आयोग (Planning Commission) : योजना आयोग भारत सरकार वह केन्द्रीय अधिकारी है जो देश के संवृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक कार्यक्रमों का निर्धारण करता है और अन्य कार्यक्रमों के साथ-साथ पंचवर्षीय योजनाओं को निर्माण करता है |
योजना आयोग की स्थापना : 1950
योजना आयोग की का अध्यक्ष : भारत का प्रधानमंत्री
वर्त्तमान में मोदी सरकार के आने के बाद योजना आयोग को समाप्त कर दिया गया है | फ़रवरी 2015 में इसका नाम बदलकर नीति आयोग (NITI Aayog) कर दिया गया है |
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था - पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से अभिप्राय उस अर्थव्यवस्था से है जिसमे "क्या उत्पादन किया जाए", "कैसे उत्पादन किया जाए" और "किसके लिए उत्पादन किया जाए" जैसे निर्णय बाजार की शक्तियाँ मांग और पूर्ति लेती है |
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के गुण :
(i) आर्थिक विकास की तीव्र होती है |
(ii) इसमें स्वहित का पोषण होता है |
(iii) उत्पादन से साधनों पर निजी क्षेत्र का अधिकार होता है |
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अवगुण :
(i) ये सामाजिक तथा सामुहिक हितों का उपेक्षा करता है |
(ii) इसमें बाजार की अनिश्चितताओं के कारण निर्धन वर्ग वर्ग की स्थित दयनीय रहती है |
समाजवादी अर्थव्यवस्था - समाजवादी अर्थव्यवस्था से अभिप्राय उस अर्थव्यवस्था से है जिसमे "क्या उत्पादन किया जाए", "कैसे उत्पादन किया जाए" और "किसके लिए उत्पादन किया जाए" जैसे निर्णय उस देश की सरकार द्वारा लिया जाता है |
समाजवादी अर्थव्यवस्था के गुण -
(i)
नियोजन के दीर्घकालीन लक्ष्य -
- संवृद्धि (Growth) : संवृद्धि का अर्थ दीर्घकाल में GDP में वृद्धि की स्थित से है, जिससे लोगों के औसत जीवन स्तर में वृद्धि होती है |
- विकास (Development) : विकास से अभिप्राय: अर्थव्यस्था में साम्य तथा रचनात्मक परिवर्तनों के साथ संवृद्धि से है |
- साम्य (Equity) : साम्य का अर्थ आय में सामानांतर वितरण से है ताकि संवृद्धि के लाभों का हिस्सा समाज के सभी वर्गों को प्राप्त हो |
- आधुनिकरण (Modernisation) : जब हम संवृद्धि की प्रक्रिया में आधुनिक प्रौद्योगिकी तंत्रों को उन्नत करते है और अपनाते हैं तो ऐसी स्थित को आधुनिकरण कहते हैं |
- आत्म-निर्भरता (self-sufficiency) : यहाँ आत्मनिर्भरता का अर्थ है की हम जिन वस्तुओं का आयात करते है उनका अपने ही देश में उत्पादन करना | भारत का यह एक दीर्घकालीन लक्ष्य है की हम हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बने |
1
कृषि की विशेषताएँ, समस्याएँ एंव नीतियाँ
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्व -
- रोजगार का एक महत्वपूर्ण स्रोत : भारत में कृषि रोजगार का एक बहुत महत्वपूर्ण स्रोत है | वर्तमान में लगभग कुल कार्यशील जनसँख्या का लगभग 45% से अधिक लोग कृषि में लगे हुए है |
- औद्योगिक कच्चे माल की पूर्ति : उद्योगों द्वारा वस्तुओ के उत्पादन के लिए बड़े स्तर पर कच्चे माल की आवश्यकता होती है जैसे कपडा बनाने के लिए कपास, चीनी बानाने के लिए गन्ना आदि | कृषि उद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन के लिए कच्चे माल का एक बहुत बड़ा पूर्तिकर्ता है i
- GDP में योगदान : कृषि क्षेत्र का भारतीय GDP में एक बहुत बड़ा योगदान रहा है | वर्ष 1950-51 के दौरान कृषि क्षेत्र का GDP में योगदान 50% था तथा वर्ष 2013-14 के दौरान 18% था | जिससे यह सिद्ध होता है की कृषि क्षेत्र का भारतीय GDP में कितना बड़ा योगदान है |
- अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में योगदान : कृषि भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भी महत्वपूर्ण योगदान देता है | भारत हर वर्ष सबसे अधिक कृषि वस्तुओं जैसे चाय, जुट, काजू, तंबाकू, काफी और मसालों आदि का निर्यात करता है |
- यातायात उद्योगों का आर्थिक आधार : कृषि यातायात उद्योगों को आर्थिक आधार प्रदान करने का काम करता है | भारत में रेल द्वारा तथा सड़क मार्ग द्वारा ज्यादातर कृषि वस्तुओं को ही लाया ले जाया जाता है |
भारतीय कृषि की विशेषताएँ -
- निम्न उत्पादकता : भारत की कृषि उत्पादकता विश्व के बड़े देशो की तुलना में सबसे कम है | उदाहरण के लिए भारत में प्रति हेक्टयर टन में गेहू का उत्पादन 3.2 तथा चावल का उत्पादन 2.8 है जबकि चीन में गेहू का उत्पादन 6.7 तथा चावल का उत्पादन 4.7 प्रति हेक्टयर है | इन आकड़ो से यह ज्ञात होता है की भारतीय कृषि उत्पादकता कितनी कम है |
- वर्षा पर निर्भरता : भारतीय कृषि वर्षा पर बहुत अधिक निर्भर करती है | भारत में सिचाई के स्थाई साधन ना होने के कारण लोगो को फसल उत्पादन के लिए वर्षा पर निर्भर होना पड़ता है | भारतीय किसानो के लिए अच्छी वर्षा का अर्थ है अच्छी फसल तथा कम वर्षा का अर्थ है कम फसल |
- निर्वाह खेती : भारत एक ऐसा देश है जहा बहुत अधिक मात्रा में निर्वाह खेती होती है | निर्वाह खेती का अर्थ है सिर्फ अपने जीवनयापन के लिए खेती करना | अभी भी भारत के अधिक राज्यों में किसान केवल अपने जीवनयापन के लिए खेती करते है |
- छिपी हुई बेरोजगारी : छुपी हुई बेरोजगारी ऐसी बेरोजगारी से है जिसमे बेरोजगारी छिपी हुई होती है | भारत में छिपी हुई बेरोजगारी सबसे अधिक कृषि क्षेत्र में ही पाई जाती है | भूमि के एक निश्चित टुकड़े पर काम करने वालो की संख्या उनकी वास्तविक आवश्यकता से अधिक होती है जिसके कारण देखने पर तो लगता है की अधिक लोग काम पर लगे है पर उससे वास्तविक उत्पादन में कोई ख़ास वृद्धि नहीं होती |
- पिछड़ी तकनीक : भारत में अधिकतर किसान गरीब होते है जिसके कारन वो नई तथा अच्छी तकनीको का प्रयोग फसल उत्पादन में नहीं कर पाते और उत्पादन के लिए पुरानी तकनीको जैसे गोबर खाद आदि का ही प्रयोग करते है |
- लघु जोते : भारतीय कृषि की एक अन्य विशेषता जोतो का आकार छोटा होना है | जोतो का आकर छोटा होने के कारण उत्पादन क्षमता कम हो जाती है साथ ही साथ किसान निर्वाह खेती करने के लिए मजबूर हो जाता है |
भारतीय कृषि की समस्याएँ -
- वित का अभाव : भारतीय कृषि की अन्य बड़ी समस्या वित् का आभाव है | भारत में अधिकतर किसान गरीब है | किसानो को बीज, उर्वरक, खाद तथा अन्य आवश्यक आगतो के लिए अल्पकालीन वित् की आवश्यकता होती है जिसके लिए किसानो को साहुकारो, जमींदारों आदि पर निर्भर होना पड़ता है |
- निम्न उत्पादकता : भारत की कृषि उत्पादकता विश्व के बड़े देशो की तुलना में सबसे कम है | उदाहरण के लिए भारत में प्रति हेक्टयर टन में गेहू का उत्पादन 3.2 तथा चावल का उत्पादन 2.8 है जबकि चीन में गेहू का उत्पादन 6.7 तथा चावल का उत्पादन 4.7 प्रति हेक्टयर है | इन आकड़ो से यह ज्ञात होता है की भारतीय कृषि उत्पादकता कितनी कम है | जो की एक चिंता का विषय है |
- वर्षा पर निर्भरता : भारतीय कृषि वर्षा पर बहुत अधिक निर्भर करती है | जो की एक बहुत बड़ी समस्या है| भारत में सिचाई के स्थाई साधन ना होने के कारण लोगो को फसल उत्पादन के लिए वर्षा पर निर्भर होना पड़ता है | भारतीय किसानो के लिए अच्छी वर्षा का अर्थ है अच्छी फसल तथा कम वर्षा का अर्थ है कम फसल |
- निर्वाह खेती : भारत एक ऐसा देश है जहा बहुत अधिक मात्रा में निर्वाह खेती होती है | निर्वाह खेती का अर्थ है सिर्फ अपने जीवनयापन के लिए खेती करना | अभी भी भारत के अधिक राज्यों में किसान केवल अपने जीवनयापन के लिए खेती करते है |
- छिपी हुई बेरोजगारी : छुपी हुई बेरोजगारी ऐसी बेरोजगारी से है जिसमे बेरोजगारी छिपी हुई होती है | भारत में छिपी हुई बेरोजगारी सबसे अधिक कृषि क्षेत्र में ही पाई जाती है | भूमि के एक निश्चित टुकड़े पर काम करने वालो की संख्या उनकी वास्तविक आवश्यकता से अधिक होती है जिसके कारण देखने पर तो लगता है की अधिक लोग काम पर लगे है पर उससे वास्तविक उत्पादन में कोई ख़ास वृद्धि नहीं होती |
- पिछड़ी तकनीक : पिछड़ी तकनीक कृषि के लिए एक गंभीर समस्या है |भारत में अधिकतर किसान गरीब होते है जिसके कारन वो नई तथा अच्छी तकनीको का प्रयोग फसल उत्पादन में नहीं कर पाते और उत्पादन के लिए पुरानी तकनीको जैसे गोबर खाद आदि का ही प्रयोग करते है |
- लघु जोते : भारतीय कृषि की एक अन्य मुख्य समस्या जोतो का आकार छोटा होना है | जोतो का आकर छोटा होने के कारण उत्पादन क्षमता कम हो जाती है साथ ही साथ किसान निर्वाह खेती करने के लिए मजबूर हो जाता है |
भारतीय कृषि में सुधार -
1. तकनीकी सुधार : कृषि के तकनीकी सुधार में निम्न शामिल है |
- अधिक उपज देने वाले बीजो का प्रयोग करना |
- रासायनिक खाद का प्रयोग करना |
- फसल संरक्षण के लिए किटनाशाक दवाओं का प्रयोग करना |
- फसल उत्पादन के लिए वैज्ञानिक खेती प्रबंध का प्रयोग करना |
- खेती के लिए खेती के यंतिकृत साधनों का प्रयोग करना |
2. सस्थागत या भूमि सुधार : कृषि के सस्थागत या भूमि सुधार में निम्न शामिल है |
- मध्यस्थों का उन्मूलन करना या खत्म करना |
- भूमि पर लगान के लिए एक स्थाई नियम बनाना |
- भूमि की चकबंदी करना |
- भूमि की उच्चतम सीमा निर्धारित करना |
- सहकारी खेती को प्रोत्साहित करना |
3. सामान्य सुधार : कृषि के सामान्य सुधार निम्न है |
- सिचाई के स्थाई साधनों का विकास करना |
- किसानो के लिए कम ब्याज दर पर साख का प्रावधान करना |
- कीमत समर्थन निति लागू करना |
नियोजन के दौरान औद्योगिक विकास की रणनीति
नियोजन के दौरान औद्योगिक विकास की रणनीति (1947-1990)
भारतीय अर्थव्यवस्था में उद्योगों का महत्व -
- अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तान : औद्योगिक विकास अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन लाने में सहायता करता है | उद्योगों के विकास से विकास की प्रक्रिया में विविधता आती है जिसके कारण केवल एक ही क्षेत्र जैसे कृषि का विकास ना होकर सभी क्षेत्रो का विकास होता है |
- कृषि के यांत्रिकृत साधनों का विकास : कृषि उत्पादकता को बढाने के लिए कृषि के यांत्रिकृत साधनों जैसे ट्रेक्टर आदि का प्रयोग करना अति आवश्यक है | कृषि क्षेत्र के लिए ये साधन उधोगो द्वारा ही प्रदान किया जाता है |
- रोजगार का स्रोत : आज के समय में जहाँ बढ़ती आबादी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ी समस्या है वही दूसरी तरफ भारत में उद्योग रोजगार के महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में उभरा है |
- आधारिक संरचना का विकास : उद्योगों के विकास के कारण ही आधारिक संरचना के विकास में बहुत अधिक तेजी दर्ज की गई है | किसी भी उद्योग की स्थापना से पहले आधारभूत आधारिक संराचना जैसे सड़क, बिजली, पानी, बीमा, बैंकिंग आदि का विकास होना अति आवश्यक है |
- विकास प्रक्रिया को गति प्रदान करना : उद्योग वोक्स प्रक्रिया को गति प्रदान करता है | उद्योगों के अभाव में विकास केवल कृषि क्षेत्र तक ही सिमित रहती है | उद्योगों के विकास के कारण उत्पादन के स्तर में तेजी से वृद्धि दर्ज की गई है |
औद्योगिक विकास में सार्वजानिक क्षेत्र की भूमिका -
औद्योगिक विकास में सार्वजानिक क्षेत्र ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है | निम्न कारणों के कारण औद्योगिक विकास में सार्वजानिक क्षेत्र को प्रत्यक्ष भाग लेंना पड़ा |
- निजी उद्यमियों के पास पूँजी का अभाव : भारत मे उद्योगों के विकास के लिए एक बड़े निवेश कि आवश्यकता थी | परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बड़े निजी उद्यमियों की संख्या बहुत कम थी और निजी उद्यमियों के पास पूँजी की उपलब्धता जितनी उनकी आवश्यकता थी उससे बहुत कम थी |जिस कारण इस कार्य के लिए सार्वजानिक क्षेत्र को सामने आना पड़ा |
- निजी उद्यमियों में प्रेरणा का आभाव : स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बाजार में उद्योगिक वस्तुओं की मांग बहुत कम थी | बाजार का आकार छोटा होने के कारण निजी उद्यमी निवेश करने के लिए इच्छुक नहीं थे जिस कारण औद्योगिक विकास के लिए सार्वजानिक क्षेत्र को आगे आना पड़ा |
- सामाजिक हितो की रक्षा : भारतीय अथव्यवस्था को समाजवाद के पथ पर अग्रसर करने के लिए यह अति आवश्यक था की सरकार अर्थ्व्यवास्था में बड़े तथा भारी उद्योगों पर नियंत्रण रखे तथा यह सुनिश्चित करे की औद्योगिक धन कुछ निजी निवेशको के हाथो में केन्द्रित न हो |
सन 1956 की औद्योगिक नीति की विशेषताएं -
सामाजिक न्याय के साथ विकास के मुख्य उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए देश को एक औद्योगिक नीति की आवश्यकता थी | इसी को ध्यान में रखते हुए तब की वर्तमान सरकार ने वर्ष 1956 में औद्योगिक नीति बनाई | जिसकी मुख्य विशेषताएं निम्न है|
- उद्योगों का वर्गीकरण : सरकार ने उद्योगों को तीन श्रेणियों ने बाँटा जो निम्न है -
(i) पहले वे उद्योग जिनकी स्थापना और विकास सार्वजानिक क्षेत्र के उद्योगों के रूप में की जाएगी |
(ii) दुसरे वो उद्योग जिनकी स्थापना और विकास निजी क्षेत्र के उद्योगों के रूप में की जाएगी |
(iii) तीसरे वे उद्योग जिनकी स्थापना और विकास सार्वजानिक एंव निजी दोनों क्षेत्रो के उद्योगों के रूप में की जाएगी |
- औद्योगिक लाइसेंसिंग का प्रावधान : 1956 की औद्योगिक नीति के अंतर्गत सरकार ने निजी क्षेत्र के उद्योगों की स्थापना के लिए लाइसेंस लेना आवश्यक बना दिया | सरकार की लाइसेंसिंग निति का मुख्य उद्देश्य निजी उद्यमियों को पिछड़े क्षेत्रो में उद्योग स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना था ताकि सभी क्षेत्रो का संतुलित विकास हो सके |
- औद्योगिक रियायते : पिछड़े क्षेत्रो में विकास की प्रक्रिया को गति प्रदान करने के लिए सरकार ने 1956 की औद्योगिक नीति में निजी उद्योगों को कुछ रियायते देने का प्रावधान किया | जैसे -
(i) पिछड़े क्षेत्रो में नई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना करने पर कर में छुट |
(ii) रियायती दरो पर बिजली प्रदान करना आदि |
लघु स्तरीय उद्योगों की विशेषताएं -
- रोजगार परक : छोटे पैमाने के उद्योगों के पास बड़े पैमाने के उद्योगों की तुलना में कम पूँजी होती है जिस कारण वे अधिकतर पूँजी प्रधान तकनीक का प्रयोग ना कर श्रम प्रधान तकनीक का प्रयोग करते है | जिस कारण छोटे पैमाने के उद्योग बड़े पैमाने के उद्योगों की तुलना में अधिक रोजगार का सृजन करते है |
- स्थान निर्धारण संबंधी लचीलापन : समान्यतः बड़े पैमाने के उद्योग ऐसे स्थानों के निकट स्थापित किये जाते है जहा कच्चा माल तथा अन्य संसाधन आसानी से उपलब्ध हो | परन्तु छोटे पैमाने के उद्योगों मे स्थान निर्धारण संबंधी लचीलापन पाया जाता है| इन्हें कही भी आसानी से स्थापित किया जा सकता है |
- अल्प निवेश : बड़े पैमाने के उद्योगों में छोटे पैमाने के उद्योगों की तुलना में अधिक निवेश की आवश्यकता होती है जबकि छोटे पैमाने के उद्द्योगो में छोटे पूंजीपतियों को भी निवेश करने का अवसर प्राप्त होता है | जिसके कारण छोटे निवेशको को भी विकास का अवसर प्राप्त होता है |
भारत का विदेशी व्यपार
भारत का विदेशी व्यापार
विदेशी व्यापार की रचना - व्यापार की रचना से अभिप्राय आयात और निर्यात की मदों से है | सरल शब्दों में व्यापार की रचना का अर्थ है की किस - किस प्रकार की वस्तुओं का आयात और निर्यात किया जा रहा है |
भारतीय विदेशी व्यापार की रचना की प्रमुख विशेषताएं -
- कृषि निर्यातों में गिरावट : भारत के कुल निर्यातों में कृषि उत्पादित वस्तुओं के प्रतिशत भाग में काफी कमी आई है | इसका मुख्य कारण घरेलु उद्योगों द्वारा कृषि वस्तुओं का कच्चे माल के रूप में करना है |
- परंपरागत मदों के निर्यात में प्रतिशत गिरावट : भारत के निर्यातों में जूट, चाय, आनाज जैसे परंपरागत मदे शामिल है | परन्तु समय के साथ इनकी घरेलु मांग बढ़ने के कारण कुल निर्यातों में इनका भाग घटने लगा |
- निर्मित वस्तुओं के प्रतिशत भाग में वृद्धि : जैसे-जैसे भारत में उद्योगों की संख्या में वृद्धि हुई वैसे-वैसे कुल निर्यातों में विनिर्मित वस्तुओ के भाग में भी भारी वृद्धि देखी गई |
विदेशी व्यापार की दिशा - व्यापार की दिशा का अर्थ है की किन-किन देशो के साथ एक देश वस्तुओं और सेवाओं का आयात निर्यात करता है |
आयात प्रतिस्थापन - आयात प्रतिस्थापन एक रणनीति है जिसके अंतर्गत ऐसी वस्तुएँ जिनका विदेशो से आयात किया जाता है उनका देश के अंदर ही उत्पादन करने को प्रोत्साहन दिया जाता है ताकि विदेशी मुद्रा की ज्यादा से ज्यादा बचत की जा सके |
घरेलू उद्योगों का विदेशी प्रतियोगिता से सुरक्षा में आयात प्रतिस्थापन की भूमिका -
घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतियोगिता से सुरक्षा प्रदान करने के लिए दो तरीके अपनाएँ गए |
(i) प्रशुल्क : प्रशुल्क आयातित वास्तुओं पर लगाया गया कर है | प्रशुल्क लगाने पर आयातित वस्तुएं महँगी हो जाती है जिससे घरेलु बाजार में उनकी माँग गिरने लगती है |
(ii) कोटा : यहाँ कोटे का अर्थ है आयात के लिए किसी वस्तु की मात्रा निश्चित करना ताकि उससे ज्यादा कोई उस वास्तु का आयात ना कर सके |
प्रशुल्क और कोटे का प्रभाव यह होता है की इससे आयात प्रतिबंधित हो जाता है जिसके कारण घरेलु उद्योगों की विदेशी प्रतियोगिता से सुरक्षा होती है |
Select Class for NCERT Books Solutions
NCERT Solutions
NCERT Solutions for class 6th
NCERT Solutions for class 7th
NCERT Solutions for class 8th
NCERT Solutions for class 9th
NCERT Solutions for class 10th
NCERT Solutions for class 11th
NCERT Solutions for class 12th
sponder's Ads
Economics-II Chapter List
sponser's ads